कणाद-कणिका कणादने जो अङ्कुर लगाया, उसका सुफल भारतने कणादिगण (स'• पु०) पिप्य यादिगण, पीपल वगै- न पाया। सुदूर युरोपखण्डमें डेलटन साहबने | रह चीजें। पिप्पली, पिप्पलीमून, चश्य, चित्रक, उसको पुनरुहार किया। आजकल युरोपमें परमाण नागर, मरिच, एला, अजमोदा, इन्द्रपाठा, रेणुक, वाद कौन नहीं मानता! परमाणु शब्दमें वित्त त विवरण देखो। जोरक, भार्गों, महानिम्बफल, हिङ, रोहिणो, मर्षप, बहुतसे लोग कहते-कणाद ईश्वरका अस्तित्व विड़ा, प्रतिविषा और मूर्वा सबके समवायको मानते न थे। कारण कणादसूत्र में किसी स्थानपर कणादिगण कहते हैं। (चक्रपाणिदत्तातसया) ईश्वरका नाम नहीं मिलता। जगत्के कारणको कादिवटो (स. स्त्रो०) नोपदका एक पौषध, निर्धारण करना हो दर्शनशास्त्रका मुख्य उद्देश्य है। पोलपाको एक दवा। पिप्पली. वचा. देवदारु. पन- यदि कणाद ईखरको विश्वका कारण समझते, तो वा, वेलकी छाल और वृहदारकका वीज बराबर अवश्य ही इस विषयको स्पष्ट स्पष्ट उल्लेख करते। । बरावर कूटपीस ३ रत्तो कांजीके साथ खानेसे श्रीपद- फिर क्या कणाद नास्तिक रहे. अथवा ईश्वरके का उग्रवेग दूर होता है। (रसेन्द्रसारस'यह) सम्बन्धपर कोई सन्देह रखते थे? नहीं, यह बात कणादौय्य (सं० पु.) खेतजोरक, सफेद जीरा। हो नहीं सकती। इन्होंने वेदको प्रामाण्य माना है- कणाद्यलौह (सं.लो०) प्रतिसारका एक औषध, तवचनादाबायस्य प्रामाण्यम् ।" (वैशे० सू० ।।३) दस्तको कोई दवा। पिप्पली, शुण्ठो, पाठा, प्राम- इन्होंने प्रात्मकर्म सम्पनको ही मोक्ष बताया और लकी, बहेड़ा, हरौत को, मुस्त क, चित्रक, विड़ा, रक्त- वर्ग एवं अपवर्गप्रद धर्मतत्त्वको प्रचार करनेके चन्दन, विल्व एवं होवेर समभाग और सबके समान लिये ही अपना सूत्र बनाया है।* परमतत्त्ववित् लौह डाल जलमें रगड़नेसे यह पौषध बनता है। माधवाचार्यने कणादके किसी अंशका प्राधान्य मान (रसरबाकर) लिखा है- कणाद (स.वि.) अबके कणसे जीविका चलाने- "चित्वे व पाकजोत्पत्तौ विभागेव विभागजे । वाला, जो दाना बीन बौन गुजर करता हो। यस्य न खलितं बुद्धिस्त' वै वैशेषिक विदुः।" (सर्वदर्शनसंग्रह) कणावता ( स० स्त्री० ) अबके कणसे जीविका हित्वोत्पत्ति, पाक द्वारा रूपादिको उत्पत्ति और निर्वाह करनेको स्थिति, जिस हालतमें दाने बोन विभागज विभागको उत्पत्तिमें जिसको बुद्दि नहीं बोन गुजर करें। बिगड़ती, उसे विहन्मण्डली वैशेषिक समझती है। कणामूल (स• क्लो०) पिप्पलीमूल, पिपरामूल। यह बात भी युक्तिसङ्गत नहीं, कि कणाद ऋषि निरी कणारक-उडोसे का एक तीथे। इसका प्रक्चत नाम खरवादी रहे। शङ्करमिश्रने कबाद-सूत्रको व्याख्या कोणार्क वा कोणारक है। किन्तु कुछ लोग अपभ्रंश करते स्पष्ट हो लिख दिया है- बना कणारक उच्चारण करते हैं। कोणार्क देखो। "दित्यनुक्रान्तमपि प्रसिद्धिसिद्धत वर परामशति ।" कणासुफल (सं० लो०) अझोल, देड़। तत् शब्द का अर्थ 'ईश्वर' प्रसिद्ध है। अतएव कणाहा (सं० स्त्री०) खेतजोरक, सफ़ेद जीरा। पूर्व सूचना न रहते भी यहां यह ईश्वरवाचक निश्चित कणिक (सं. पु०) कर्णव होता है। ईश्वर शब्दका उल्लेख न उठाते भी कणादने १ कणा, पोपल। २ शुष्क गोधमचणे, सूखे गेहूंका गौणभावसे ईखरको स्वीकार किया है। ईश्वर शब्द देखो। आटा। ३ शत्र, दुश्मन । ४ प्रारतिका एक नियम । २ स्वर्णकार, सोनार। ५ धृतराष्ट्र के एक मन्त्री।
- “यतोऽसादयनिःश्रेयससिद्धिः सधर्मः।" (वैशे ० ० ११२)
"कचिक मन्त्रियां श्रेष्ठ धृतराष्टोऽब्रवौइचः।" (भारत, सम्भव १४१५०) जिससे पभ्युदय और निःश्रेयस पर्थात् स्वर्ग एवं पपवर्ग मिलता। अबका कप, चावलका दाना। उसोका नाम धर्म पड़ता है। | कषिका (सं. स्त्रो०) कषाः सन्यस्याः, कण-उन् । कन प्रत इत्वम्।