इन्द्रियवचौ-इन्द्रियसन्निकर्ष इन्द्रियवजी (हिं० स्त्री०) वाजीकरण-भेद, नामर्दी । ट्रव्यमें रहनेवाले पदार्थक प्रत्यक्षमें इन्द्रियसंयुक्त दूर करनेको एक तदबीर। समवाय व्यापार कारण होता है। जैसे-किसी इन्द्रियवत् (सं० त्रि०) प्रशस्तं वा वश्यं इन्द्रियं अस्त्यस्य, दृव्य के दृष्टिगोचर होनेसे उसका गुण रूप प्रभृति इन्द्रिय-मतुप, मस्य वः। १ इन्द्रियको वशमें रखने- | भी देखने में आता है। वहां उस गुणके साथ इन्द्रियका वाला। २ प्रशस्त इन्द्रिययुक्त, अच्छे रुनवाला। संयोग हो नहीं सकता। क्योंकि गुणसे गुण इन्द्रियवर्ग (सं० पु.) एकादशेन्द्रिय, इन्द्रियसमूह, कभी नही मिलता अर्थात रुप और इन्द्रियसंयोग दोनो ग्यारहो रुक्त। गुण हैं। और गुणमें इन्द्रियसंयोग कभी रह नहीं इन्दियविप्रतिपति ( स्त्री.) इन्द्रियको विकृति. सकता। इसलिये इन्द्रिय-संयोगको गुणका प्रत्यक्ष रुनका बिगाड़। कारण कह नहि सकते इसीसे संयुक्त-समवाय व्यापार इन्द्रियवृत्ति ( स० स्त्री०) शब्द, स्पर्श प्रभृति विषयमें माना है। संयुक्त वस्तु होती है, क्योंकि उसमें बहिरेन्द्रियको आलोचना, रुक्तका काम । वचन, इन्द्रियका संयोग रहता है। इन्द्रियसंयुक्त रहनेसे श्रादान, विहार, त्याग एवं आनन्द ये पांच कर्मेन्द्रियों ही वस्तु नाम पड़ा है। उस संयुक्त वस्तु में रहनेवाले की और सङ्कल्प, विकल्प तथा अध्यवसाय ये मनःको गुणादिमें समवाय है। अतः इन्द्रियसंयुक्त समवाय वृत्ति हैं। सम्बन्धसे द्रव्यमें रहनेवाले गुणक्रिया जाति प्रभृति इन्द्रियवैकल्प (सं० लो०) इन्द्रियदुर्बलता, रुक्न की | पदार्थका प्रत्यक्ष होता है। कमजोरी। द्रव्य में समवेत-समवाय सम्बन्ध रहनेवाले पदार्थ के इन्द्रियसन्ताप (सं० पु०) इन्द्रियवैवति, रुनको प्रत्यक्षमें इन्द्रियसंयुक्त समवेत-समवाय संबध कारण बीमारी। है। इसलिये द्रव्यमें समवेत-रहनेवाले पदाथके इन्द्रियसन्निकर्ष ( स० पु०) स्व व विषयके साथ प्रत्यक्षमें सयुक्त-समवेत-समवायको व्यापार माना है। इन्द्रियका सम्बन्ध, प्रत्यक्ष-जनक व्यापार, अपने-अपने ट्रव्यमें समवेत गुणक्रिया और उसमें रहनेवाली काममें रुक्नका लगाव। इन्द्रियसन्निकर्ष कार्यमान दो जाति है। इसलिये उसका प्रत्यक्ष इन्द्रिय-संयुक्त. प्रकारके कारणसे उपजता है। एक करण-विधायक समवेत-समवायसे होता है। इन्द्रिय-संयुक्त द्रव्य अर्थात् परम्परासे सम्बन्ध रखनेवाला और दूसरा | होता है। उसमें समवेत गुणक्रिया इन्द्रिय-संयुक्त- व्यापार विधायक अर्थात् साक्षात्कारण होता है।। समवेत है। गुणक्रियामें गुणत्व-कर्मत्व जातिका जैसे-काष्ठछेदन कार्यमें, कुठार करण विधायक और | समवाय है अत इन्द्रिय-संयुक्त समवेत समवाय-सम्बन्ध- चोग्नवाली संयोजना क्रिया व्यापार-विधायक कारण है। से जातिक प्रत्यक्ष होने में इन्द्रिय-संयक्त-समवेत- हमें नासिका, कर्ण, चक्षुः, जिह्वा, त्वक् और मन: समवाय कारण अवश्य स्वीकार करना चाहिये। इन छ: इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष होता है। इस छहो तरहके शब्दके प्रत्यक्षमें समवाय-व्यापार कारण है। शब्द प्रत्यक्षका सन्निकर्ष -व्यापार साक्षात् कारण है। तथा गुण और कर्ण द्रव्य पदार्थ है। कण में शब्द समवाय. वह. सयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्त समवेतसमवाय, सम्बन्धसे रहता है। सुतरां कर्ण के समवाय सम्बन्धसे समवाय, समवेतसमवाय और विशेषणविशेष्यभावके शब्दका प्रत्यक्ष होता है। अतएव शब्दके प्रत्यक्षमें भेदसे छः प्रकारका है। वस्तुके साथ इन्द्रियका सम्बन्ध कारण समवाय सन्निकर्ष है। संयोग व्यापार कहाता है। क्योंकि प्रत्यक्षम शब्द-समवेत शब्दत्व जातिके प्रत्यक्षमें कारण सम- द्रव्यके साथ इन्द्रियका संयोग होते ही उसका ज्ञान वेत समवाय व्यापार है। शब्द कर्णमें समवेत है। हो जाता है। जैसे-वक्के संयोगसे स्पर्शयुक्त द्रव्य का | उसमें शब्दत्व जातिका समवाय हैं। इसलिये शब्दत्व वा स्पर्शका प्रत्यक्ष होता है। जातिके प्रत्यक्ष में समवेत समवाय कारण माना है।
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६४
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