कञ्चुलिका-कञ्जिया सर्वकार्यक कुशल और गुणवान् अन्तःपुरचारी | कन्चन (सं० पु०) के सुखं जनयति, कम-जनि- वृद्ध विप्रको कञ्च को कहते हैं। इसका संस्कृत पर्याय | अण। १ कन्दप, कामदेव। २ पक्षिविशेष, मैना। सौविदन्न, स्थापत्य और सौविद है। २ यव, जौ। कञ्जनाभ (स'० पु.) कञ्ज पद्मनाभौ अस्य, कञ्च- ३ चणकवृक्ष, चनेका पेड़। ४ सर्प, सांप। ५ लम्पट, नाभि संज्ञायां अच। विष्णु। • जिनाकार। जोङ्गक वृक्ष । ७ दोषान्वित घोटक- "व्यज्येदं स्खे न रूपेण कन्चनाभस्तिरोदधै।" (भागवत श६४४) विशेष, एक ऐबी घोड़ा। स्कन्ध, वच, बाहु और कच्चमूल (सं.क्लो०) कमलकन्द, कमलको जड। अंस देशमें जो बाजी पन्यवर्ण रहता, उसे विहान् कब्जयोनि (सं० पु.) शालक, कसेरू। कञ्च को कहता है। (जयदत्त) कञ्जर (सं० पु०) कं जलं जणाति आकर्षति जारयति (स्त्री०) कञ्चयति रोगादिकमुपशमयति, कञ्च- वा, कम्-कजि-अरन् । १ सूर्य, आफताब । ब्रह्मा। णिच् बाहुलकात् उकन्-ङीष् । ८ औषधविशेष, ३ उदर, पेट। ४ हस्ती, हाथो। ५ मयूर, मोर । एक दवा। चोरोशवृक्ष। १०.शरपुडा । ११ कञ्चक ६ अगस्त्य मुनि। ७ धातको, धाय। ८ पाटला, शाक। १२ चोलो, अंगिया। (त्रि०) १३ आबद्द बरसातका धान। कवच, बखतर पहने हुना। कजल (सं० पु०) कञ्जते पठितुं शक्नोति, कजि- कक्षुलिका (सं० स्त्री०) कञ्चते अङ्गानि आवृणोति, कलच्। मदनपक्षी, मैना। कचि-उलच-डोष खार्थे कन् इवः टाप च । 'अङ्ग- कजलता (सं. स्त्री०) लताविशेष, एक बेल । रक्षिणी, चोली। (Asclepius odoratissima) "त्व' मुग्धाक्षि विनव कञ्चलिकया धत्से मनोहारियौम् ।" (अमरुशतक) | कञ्जलिका (सं० स्त्री० ) अङ्करक्षिणी, चोली। कञ्चल (सं० ली.) कचि-उलच् । स्त्रियोंका एक | कनार (स.पु.) के जलं जारयति, कम्-ज-णिच्- अलङ्कार। पण पारण वा। कचिमजिभ्यां चित् । उण् ॥१३०। १ सूर्य, कत्र (स० पु. ) के जले शिरसि च जायते, कम् आफताब। २ ब्रह्मा। ३ अगस्त्य मुनि। ४ हस्ती, जन्-ड। १ ब्रह्मा। २ केश, बाल। (को०) ३ पद्म, हाथों। ५ मयर, मोर। ६ व्यञ्जन, खानेकी उमदा कमल । ४ अमृत । चीज़। ७ जठर, पेटको आग। कनक (स• पु.) कच्छते वाक्यमुच्चारयितुं शक्नोति, | कलिक (सं० क्लो०) काञ्जिक, कांजी। कजि-ख ल। पक्षिविशेष, मैना। कनिका (सं० स्त्री०) कञ्चते भूमि भित्वा उत्पद्यते, कलगिरि (सपु.) कामरूपको सीमाके अन्तका कजि ख ल-टाप इत्वच। ब्राह्मणयष्ठिवृक्ष। एक पर्वत। कञ्जिया-सध्यप्रदेशवाले सागर जिलेके उत्तरप्रात्तका - "उत्तरस्या कञ्चगिरिः करतोयात पश्चिमे । एक प्राचीन नगर। पहले यह स्थान बुंदेलोंके तीर्थचे ष्ठादिधनदौ पूर्वस्यां गिरिकन्चके ॥” ( योगिनौतन्त्र ११ पटल)| अधिकारमें रहा। उस समय कजियावाले शासन- कजज (स.पु.) कच्चात् विष्णोनोंभिपद्मात् जातम, कतोक करपीड़नसे प्रजा विपद्ग्रस्त हुया था। आज- कज-जन-ड। ब्रह्मा। भागवतमें नाभिपझसे ब्रह्माको कल इस स्थानको अवस्था क्रमशः सुधर रही है। उत्पत्तिपर इस प्रकार वर्णित है-महाप्रलयके समय कनियाके प्रथम बुदेला शासनकर्ता देवीसिंह ब्रह्माण्ड जलमग्न होनेपर विष्णु समुदाय अपने में लीन रहे। उनके पुत्र शाहजीने नगरकै निकट पहाड़पर एक कर जल शायौ हो गये। सोते सोते सहस्र चतुयुग | दुर्गे बनवाया था। यह दुर्गे चतुष्कोणाकार है। चारो प्रतीत होनेपर उन्होंने अपनी इच्छाके अनुसार नाभिसे पाखेके चार बुजे पाजकल भग्नप्राय हो गये हैं। एक पद्मकोष उत्पादन किया था। उसीसे स्वयम्भ १७२६ ई० को कुरबाईके नवाब हसन उन्ना खान्ने ब्रया पाविर्भूत हुये। ( भागवत ३१३६१६). | माजीके वंशधर विक्रमादित्वको कनियासे निकाल
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६२७
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