कजाक-कधुको कब्जाक (तु• पु०) १ डाकू, लुटेरा। २ धोकेबाज, : कञ्चन (सं• पु०) काञ्चनक्ष, कचनारका पेड़। चालाक। कच्चार (सं० पु.) के जलं चारयति रश्मिभिरिति कज्जाको (अ. स्त्री०) १ लुटेरापन, डाकुवोंका काम। शेषः, क-चर-णिच-पच् । सूर्य, प्राफताब। २ धोकेबाजी, चालाको। कश्चिका (सं० स्त्री०) कञ्चते वेशौ प्रकाशते, कचि- कज्ज्वल (सं० को०) कज्जल, अनन, सुरमा। खुल-टाए रत्वञ्च। १ वेणुशाखा, बांसको डाल। कञ्चट (सं० को०) कञ्चते दीप्यते, कचि-अ इसका सस्वतपर्याय कुञ्चिका, कृष्णु और क्षुद्रमोट १जलज शाकविशेष, चौराई। इसका संस्थत पर्याय | है। २ क्षुद्रस्फोट, छोटा फोड़ा, कंजिया। जलभू, लाङ्गली, शारदो, तोयपिप्पली, शकुलादनी कच्ची (सं० स्त्री.) कञ्चते वेशो प्रकायते, कचि-पच् और जलतण्डु लीय है। भावप्रकाशके मतसे कञ्चट इदित्वाब म्-डी। वंशशाखा, बांसको डाल । नेमकारक, धारक, शीतल, पित्त एवं रक्तनाशक, लघु, कच्च, कचुक देखो। तिक्त और वायुप्रशमक होता है। २ गजपिप्पली, कञ्चुक (सं० पु०) कञ्चते सर्वशरीरे दीप्यते, कचि बड़ी पीपर। बाहुलकात् उकन् रदित्वात्रुम्। १ सत्वक, सांपकी कञ्चटपत्रक (सं० की.) कच्चटच्छद, चौराईकी पत्ती। केचुल। २ वचका पावरण, सोनेपर पहना जानेवाला कञ्चटपल्लव (सं० पु.) कञ्चट, चौराई। कपड़ा। इसका संस्कृत पर्याय-चोल, कञ्चलिका, कञ्चटादि (सं.पु.) अतिसार-कषायविशेष, दस्तकी कुर्पासक भार अङ्गिका है। ३ पुवादिके जन्मोत्सव बीमारीका एक काढ़ा। कञ्चटपत्र, दाडिमपन, उपलक्षमें प्रभुके पङ्गसे बलपूर्वक मृत्व द्वारा ग्रहण जम्बपत्र, शृङ्गाटकपत्र, होवेर, मुस्तक और शुण्ठी। किया जानेवाला वस्त्र, जो कपड़ा मालिकके जिस्मसे दो-दो तोले प्राधसेर जसमें उबाल आध पाव रहन- किसी शादीके वक्त, नौकर चाकर जबरन उतार लेता से उतार लेते हैं। फिर या कवटादि पाचन पौनेसे हो। ४ वस्त्रमात्र, काई कपड़ा। "देवाच तासशिखा- अतिवेगवान् पतिसार भी रुक जाता है। (चक्रदप) | इतप्रभान्। चू चावरखम्बरकक्षु कानाम् ।" (भागवत ५०५) कन्चटावलेह (संपु०) ग्रहणो रोगका एक अवरोह।। ५ परिच्छद, पोशाक। कवच, जिरह। ७चोली, कच्चट और तालमूली एक-एक मेर १५ सेर जसमें | अंगिया। ८ पौषध विशेष, एक दवा। बरमा। उबाल १ पाव रहनेसे उतारकर छान लेना चाहिये। कञ्चुकशाक (सं० पु.) थाकविशेष, एक समो। . फिर इस काथको सेर चोनी डाल पकाते हैं। यह वातस, पाही, सुतकर और कफपित्तनाथन चतुर्थांश अवशिष्ट रहते वराहक्रान्ता, धातकीपुष्य, | होता है। (वैद्यकनिघण्ट) . पाठा, विल्वपेयी, पिप्पली, भांगको पत्ती, प्रतिविषा, कञ्चका (सं• स्वी०) १ अश्वगन्धा, असगंध । २ कक्षक- यवक्षार, सौवर्चलरस, रसाचन और मोचरसका चूर्ण शाक, एक सनो। | कञ्चकालु (सं० पु.) कञ्चुकोऽस्वास्ति, कक्षुक- दो-दो तौले छोड़ना चाहिये। भेषको भोसल पड़ने | पालुच्। सर्प, सांप। पर इसमें १ पाव मधु मिलाते हैं। दोष, बल एवं काल विवेचनापूर्वक मावाके अनुसार प्रयोग कञ्चुकि (सं० पु.) यव, जौ। कञ्चकित (सं० त्रि) कवचयुक्त, बख् तर पहने हुपा। करनेपर यह पवलेह प्रतीसार, ग्रहणी, अबपित्त, कञ्चुको (सं० पु०) कञ्चुकोऽस्त्वस्थ, कक्षु क-इनि । उदररोग, कोष्ठज विकार, शूल और पचिको १राजाके अन्तःपुरका रक्षक, बादशाहके जूनान- निवारण करता है। खानेका मुहाफिज। भरतके मतसे यह विविध काड़ (सं.पु.) करते शोभते, कचि-पड़न इदिवा- गुणशाली होता है- बम्। कञ्चट विशेष, किसी किसकी चौराई। इसका "चन्तःपुरचरीही विप्रो गुचगवान्वितः । संस्कृत पर्याय-कपट, काच, पक्रसद और अम्बुप है। समकावियन का कौव्यभिधीयते।" ____VoL . 167
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६२६
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