६२४ कज़िया-कज्जली प्रान्त में अनेक वन्य हस्ती रहते हैं। उत्तर सीमापर। मृत और मधु मिला देते हैं। इसका अञ्जन लगानेसे गङ्गाके निकट इष्टक और प्रस्तरनिर्मित एक प्रत्य च सर्वप्रकार तिमिररोग नष्ट होता है। अञ्जन देखो। वृहत् मन्दिर है। यह असामान्य शिल्पके नैपुण्यसे २ नौलकमल। (पु.) कुत्सितमपि द्रव्यजातं विभूषित है। इसको चारो ओर सिद्धगण, देवगण लतागुल्मादिकं जालयति जीवयति वर्षणेन इति शेषः. और बुधगणको मृति बनी है।" कु-जल-णिच्-अच् इखः कदादेशश्च । ३ मेघ, बादल । चम्मासे ८२ मोल दूर अाज भी कजेरी नामक ४ कामरूपके अन्तर्गत एक पर्वत। ( कालिकापु० ) एक ग्राम अवस्थित है। कितने ही लोग इसी ५ कज्जली, एक मछली। ७ छन्दोविशेष, एक बहर। अचल में कजिक के प्रस्थान सम्बन्ध पर मत दिया इसके प्रत्येक पादमें १४ मात्रा रहती हैं। अ करते हैं। एक गुरु और एक लघु लगता है। कजिया (१० पु.) विवाद, झगड़ा, टंटा। कज्जलध्वज (सं० पु० ) कज्जलं ध्वज इव यस्य, बहुव्री। अजी (फा० स्त्री०) १ बक्रता, टेढ़ाई। २ ऐब, प्रदीपशिखा, चिराग। दोष, कसर। । कज्जलरोचक (सं० पु०-क्लो०) कज्जलं रोचयति, कज्जल (सं० लो०) कु कुत्सितं जलं अस्मात, कन्जल रुच-णिच्-अच् स्वार्थ कन्। दीपाधार, दीवट । कुत्सितं चक्षुःस्वदूषितं जलं दूरीभूतं भवत्यस्मात्, इसका संस्कृत पर्याय कौमुदीक्ष, दीपवृक्ष, शिखातरु, बहुव्री कोः कदादेशः। १ अन्जन, काजल। इसका दीपध्वज और ज्योत्समावृक्ष है अपर संस्कृत माम लोचक है। आयुर्वेद के मतसे कन्नलतीर्थ (सं० लो०) तीर्थविशेष. किसी पवित्र नेत्ररोग पर उपकारप्रद कतिपय कन्जल चलते हैं। स्थानका नाम। यथा-त्रिफलाका जल, भीमराजका रस, शुण्ठीका कज्जला (सं० स्त्री०) मत्स्यविशेष, एक मछलो। क्वाथ, मधु, घृत, छागमूत्र और गोमूत्र सकल द्रव्यमें | (Cyprinus atratus) इसका संस्कृत पर्याय कन्नती ७ बार शोशको निषित कर अच्चन लगानेसे चक्षुका और अनण्डा है। ज्योति बढ़ता है। कन्नलि, कजली देखो। त्रिफलाका जल, भीमराजका रस, घृत, विष- | कज्जलिका, कजलो देखो। कल्क, छागदग्ध और मधु-समुदायमें प्रत्यह एक कम्नलित (सं०वि०) कज्जलं जातमस्य. कज्जल- खण्ड शीशा उत्तप्त करना चाहिये। इसी प्रकार इतच। तदस्य स'जातं तारकादिभ्यतच्। पा ५॥२॥३६ । कन्जल सात वार करने बाद शोशको सलाका बना लेते हैं। लगा हुआ, जो प्रांजा गया हो। प्रातःकाल अञ्जनके साथ उक्त सलाका प्रयोग करनेसे कज्जली (सं० स्त्री०) कज्जलमिवाचरति, कज्जल- विविध नेत्ररोग प्रशमित होते हैं। क्विप-अच-डोष् च। १मिश्रित पारद और गन्धक, उडम्बर काष्ठके पात्रमें इमलीकी पत्तीका रस मिला हुआ पारा और गन्धक । साधारणतः यह डाल घुघचौके मूल और सैन्धवको घोटना चाहिये। समपरिमाण पारद और गन्धक खरल में डाल घोटनेसे फिर इस चर्ण के साथ सुरमेकी बुकनी मिला अञ्जन बनती है। पारद और गन्धक मिलते ही काला पड़ लगानेसे काच, अर्म और अर्जुन प्रभृति नेत्ररोग जाता है। फिर सुचिक्कण होते ही व्यवहारोपयोगी विनष्ट होते हैं। कजली तैयार होती है। औषधविशेषमें विभाग मनिष्ठा, यष्ठिमधु और सैन्धवको एकत्र गन्धक द्वारा भी इसके प्रस्तुत करनेका उपदेश है। चक्षुमें अञ्जन लगानेसे तिमिररोग मिट जाता है कन्जली वृहण, वीर्यवर्धन, और माना अनुपानसे खसकी जड़का काथ सैन्धव मिला छान कर सर्वरोग विनाशन होतो है। (वैद्यकनिघट )२मतस्य- किर पकाना चाहिये। घनीभूत होनेपर उतार कर विशेष, एक मछली। ३ स्याही।
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६२५
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