भरे हुये स्थानमें कच्छपी अण्डे देतो, फिर अण्ड पर | करते समय नदीकच्छप तौरवत् मस्तक और ग्रीवा बाल चढ़ा लेती है। पर्वतपर इधर उधर गर्त में भी चलाता है। यह किसीको काटनेपर शीघ्र नहीं कच्छपी अण्डे दे देती है। अण्डा देखने में साफ छोड़ता, दंष्ट्राखान उखाड़ डालनसे अलग होता है। और ८ इन्चतक बड़ा होता है। एक स्थानमें १८ इसीसे सब कोई इस जातिके कच्छपसे भय खाता है। अण्डे रहते हैं। यह वधिर होते, इसीसे किसीको भारतवासी कहते हैं-एकबार कच्छप किसीको पचादिकसे पकडने प्रति देख-सुन नहीं सकते।। काटनके लिये पकड़नपर विना मेघ गरजे नहीं यह कच्छप प्रायः शताधिक वर्ष जीवित रहता है। । छोड़ता। इस जातिमें स्त्रियां अधिक होती हैं। बिलकच्छपका स्वभाव अपर बच्छपजातिसे स्वतन्त्र । पुरुषों की संख्या प्रति अल्प है। स्त्री एकवार ५०. होता है। यह स्थलकच्छपकी भांति धीरे-धीरे नहीं पण्डे देती है। फिर नकि वयसानुर अण्डे भी कम- चलता, किन्तु जल और स्थल दोनों में प्रति शीघ्र याता-| ज्यादा निकलते हैं। यात करता है। बिलकच्छप केवल शाकपत्रसे सन्तुष्ट सन्तरणके लिये समुद्र-कच्छपके मत्स्यकी भांति नहीं रहता,मुविधा लगनेसे जीवजन्तु मतस्यादि पकड़ पर होते हैं। ऐसे पर अपर किसी जातोय कच्छपके भी उदर भरता है। इसका अण्डा प्रायः गोला- देख नहीं पड़ते। इसके पङ्ग-प्रत्यङ्ग भी सन्तरणोप- कार, शम्ब कादिको भांति चूर्णीत्पादक प्रावरणसे योगी हैं। पण्ड देनेका समय छोड़ यह प्रायः तटपर पापकाटिस और व न - a छ रहता है। बिलकच्छपी . - -2 नहीं चढ़ता। कोई कोई कहता-यह राविकालको मही खोट गर्नमें पगडा देती है। सचराचर व निर्जन स्थानमें चरते फिरता है। बिलके पास ही गर्त करती और विशेष सतर्क रहती समुद्रकच्छप कभी कभी अपनी प्यारो घास-पत्ती शव को चोट तो अण्डेपर नहीं पड़ती। यह नामा प्रकार । खानेको उपकूलपर चढ़ अनेक दूर पर्यन्त चला जाता होता है। एसियामें १६, अमेरिकामें १६, युरोपमें २ | है। यह समुद्रके जलमें निष्यन्दभावसे तैरा करता और अफरीकाम १ प्रकारका बिलकच्छप मिलता है। | और देखने में मुर्दा मालम पड़ता है। सन्तरणमें __ नदीकच्छप सर्वदा हो जसमें रहता, कभी-कभी समुद्रकच्छप विशेष पटु होता है। सामुद्रिक उजिद स्थल पर आ चढ़ता है। यह बहुत बड़ा होता ही इसका प्रधान स्वाब है। फिर भी जिस सामुद्रिक और एक एक वजनमें पैंतीस साढ़े तीस सेर बैठता | कच्छपके गावसे कस्तुरिकाकी भांति गन्ध पाता, वह है। इसकी खोलका परिमाण साढ़े तेरह इच है। घोंघे पकड़ पकड़ खाता है। यह जल में और जलके उपर तैरा करता है। देहका पण्डे देते समय इस जातिको स्त्रो रात्रिकालपर निबभाग अल्प खेतवर्ण, गुलाबी अथवा नौला जैसा | पुरुषके साथ समुद्र छोड़ बहुत दूर किसो होप मध देख पड़ता है। किन्तु उपरिभाम नानाविध रहता | बालुकामय स्थानमें उपस्थित होती है। बालमें वह दो है।. वह सचराचर पिङ्गल वा पांशवण लगता, जिस फोट गहरा एक गते कर लेती और उसी गर्त में एक- पर छोटा-छोटा धब्बा पड़ता है। रात्रि पानसे यह कास १..पण्डे देती है। इसी प्रकार दो-तीन सप्ताह- अपनेको निरापद समझता और नदीतट, नदौके में फिर दो बार वह अण्डे दिया करती है। अंडेका निकट पतित वृक्षको शाखा अथवा नदी में मेरते किसी पायतन शेटा और गोलाकार रहता है। वह सूर्यके काष्ठपर चढ़ विश्राम करता है। मानवका स्वर उत्तापसे १५से २८ दिनके मध्य फट जाता है। अंडा अथवा अपर किसी प्रकारका खर सुननेपर नदीकच्छप | फटनेसे प्रथम कच्छप-शिक्षके पृष्ठका आवरण नहीं तत्क्षणात् नदीके गर्भ में डूब जाता है। यह बहुत होता। उस समय यह खेतवर्ण देख पड़ता पौर मांसप्रिय रहता और कुम्भौरका छोटा बच्चा भी पाते दारुण विपदका वेग रहता है। खलपर इसे पक्षी ही उदरसात् करता है। पाखेट अथवा पामरक्षा | मारता और जबमें जा गिरनेसे कुम्भीर एवं सामुद्रिक VoL IIL 155
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६१८
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