कच्छप वा नदीकच्छप और थालसियान ( Thalassites) स्थलकच्छप भी जसमें बहुत प्रसन्न रहते हैं। यह वा समुद्रकच्छप। एककालही अधिक जल पी लेते और कीचड़में शरीर . सकल कच्छपोंके मुण्ड सदि सरीसृपकी भांति | घुसेड देते हैं। सागरवेष्टित होपसमूहमें स्थलकच्छप एक अस्थिसे निर्मित होते हैं। किन्तु करोटि सब अधिक होते हैं। यह बहु संख्यक एकत्र दल बांध जातिको समान नहीं पड़ती। घूमा करते हैं। जहां प्रस्रवण चलता, वही स्थान स्थलकच्छपका मस्तक पण्डाकार, अग्रभाग विषम | कच्छपको अच्छा लगता है। यह नाना स्थानों में गर्त और दोनों चक्षुवीका व्यवधान कुछ अधिक रहता है। बना लेते हैं। पथिक पथमें जल न पाने पर उसी नासिकाका छिद्र बड़ा और पश्चात् भागपर चपटा । गतसे जलका सन्धान लगा सकते हैं। पहेगा। अक्षकोटर गोलाकार और वृहत् होता है। हम महाभारतमें गजकच्छपका युद्ध पढ़ विस्मित पावके कपालका अस्थि पश्चात् कशेरुके मध्य मुक हो जाते हैं। किन्तु वर्तमान चाखाम दीपक कच्छपका नाता है। उभय पाख को दो बृहत् शवास्थि पड़ते विवरण सुननसे वह घटना असम्भव समझ नहीं पड़ती। हैं। इन्हीं दोनोंके मध्य मस्तकके बड़े खरास्थिका डारुन साहबने चाखाम होपमें अति वृहदाकार मते रहता है। कच्छप देखा था। प्राकिपिलेगो दीपपुच्चमें बहत वच्छपके सत्तमान में नासाका अस्थि नहीं होता। बड़े-बड़े कच्छा विद्यमान हैं। उनमें एक एक कच्छप- सनीव वस्थापर नासिका छिमें सूक्ष्म पत्रोंकी का केवलमात्र मांस वजनमें प्रायः ढाई मन बैठता भांति सकल अस्थि झलकते हैं। नासिकाका अस्थि है। सन्देह करते-एक कच्छपको सात-आठ पादमी मय छिद्र एक ओर दोघं रहता और फलास्थि माव्य स्थि, उठा सकते हैं या नहीं। स्त्रीको अपेक्षा पुरुषका, इन्वस्थि तथा दो ललाटास्थिसे बनता है। लाङ्गल भी लंबा पड़ता है। यह कच्छप जब जल- जलकच्छपका मस्तक चपटा पड़ जाता है। इसका शून्य स्थानमें रहते या जल पानकर नहीं सकते. तब ललाट सम्मख विस्त त होते भी अक्षके कोटर पर्यन्त वृक्षके पत्रोंका रस पिया करते हैं। नहीं पहुंचता। ___ जो स्थल कच्छप उच्च अथवा शीतल स्थान में रहते, • कोमल कच्छपका मुण्ड सामने बैठा और पीछे । वह तिल और कटरसविशिष्ट वृक्षके पत्र चरते हैं। भ का रहता है। इसके पाख कपालका सूक्ष्मास्थि, चाखाम होपवासी कहते-स्थानीय कच्छप तीन-चार ललाटका पञ्चाङ्गाग है। शालास्थि और गण्डास्थि पर दिनतक जलके पास रहते, फिर निम्न भूमिको चल स्पर संलग्न है। कोमल कच्छपका मुख प्रपर | पड़ते हैं। किसी किसी स्थानपर स्थलकच्छपोंको वच्छपको अपेक्षा छोटा, अक्षकोटर कितना हो लंबा। वृष्टिके जल भिन्न अपर समय जल रहने के लिये नहीं पौर नासिकाका छिद्र अतिसूम होता है। मिलता। फिर भी यह जीते जागते हैं। पथमें कच्छपके नीचेका मुखकोण कुम्भीरके मुखकोण पिपासा लगने पर उक्त होपवासो कच्छप मार खोलसे जैसा लगता है। किसी किसी प्राणितत्त्ववित्के मतमें जल निकाल पी लेते हैं। यह जल प्रतिपरिष्कार वह पक्षीके मुखकोणसे बिलकुल मिलता है। सकल रहता और खाने में कट लगता है। वहांका स्थल अस्थि पक्षीके अस्थिकी भांति अविच्छिन्न रहते हैं। कच्छप प्रत्यह दो कोस चल सकता है। शरत्कालको जलकच्छप मानवके विशेष कार्यमें नहीं पाता।। कच्छपके मिलन का समय है। इसी समय स्त्री-पुरुष वङ्गदेशक कुछ नीच लोग इस कछपको खाते हैं।। एकत्र होते हैं। पुरुष मुखके आवेशमें मत्त हो प्राण किन्तु समुद्रकच्छपसे मानवजातिका अनेक उपकार छीड़ चिल्लाया करता है। वह कर्कशध्वनि २०० हाथ होता है। कोई उसे खाता और कोई अस्थिसे कड़ा दूरसे सुन पड़ती है। फिर होपवासी समझ जाते- बनाता है। अब कच्छपके डिम्ब प्रसवका समय पाया है। बालसे,
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