कचौ-कचूरक मध्यभागमें हन्तसे मिल जाते हैं। पत्रांश चारो भोर : आधार बीच बीच पृथक कर देना उचित है। खाकको कोणविशिष्ट होता है। कचु फलको भांति यह खाद अच्छी रहती, क्योंकि उससे कच्चु ख ब बढ़ती भो विजातीय है। फलका डंठल ऊपरी भागवर है। किन्तु पत्थरके कोयेलेको खाक वृक्षको जला क्रमशः मोटा पड़ते जाता है। फलका वहिरावरण देती है। इससे उसको कचुके खेतमें नहीं डालते । डंठलकी तरह समान रहता है। इसमें दो-तीन वीज उत्पन्न होते हैं। खाक बना लेना चाहिये। कच्चा गोवर या दूसरी कची (सं० स्त्री०) कुचाथिवीज, एक तुखम। खाद देनेसे यह अधिक नहीं बढ़ती और खाने में किन- कचौ चौ (हिं. स्त्री०) १ कृत्तिका नचत्र, कचपचिया। किनी पड़ती है। इस लिये ऐसी खाद डालने से कोई २ दंष्ट्रा, दाढ़। किचकिचानको 'कचीचो बटमा फल नहीं मिलता। नदी किनारे कचु लगानेसे और दांत बैठ जानेको 'कचीचो बंधना' कहते हैं। बहुत लंबी होती है। इसीसे पल्लोग्राममें पुष्करिणो कचु (सं० स्त्री०) कन्दविशेष, घुइया, अरवी। या नाले किनारे एहस्थ इसे लगा देते हैं। घरमें (Colocasia antiquorum ) यह भेदक, गुरु, कट, लगानेके लिये एक हाथ गहरा और एक हाथ चौड़ा पिच्छिल और आम, वायु एवं पित्तकारक होती गड्डा खोदे। फिर उसमें मट्टो और खाक भर है। स्मृतिशास्त्रके मतसे दुर्गोत्सवको नवपत्रिकामें एक अङ्कर लगा दे। इसी प्रकार कई वृक्ष लगा - कचु परिगणित है। सकते हैं। कचुमें फूल लगता, किन्तु फल नहीं पड़ता; इसे दो वत्सर बाद खोदते हैं। चार पांच वर्ष इसीसे वीजमें अङ्करका अभाव रहता है। पुरातन पीछे खोदनेसे बड़ी कचु नहीं निकलती। वृक्ष निकाल डालनपर मट्टीमें जो रेशेदार जड़ बचती, इससे कितने ही व्यञ्जन अति सुन्दर बनते हैं। उसौसे अकरोत्पत्ति चलती है। वृक्ष न निकालते कचुको उबाल और छाल निकालकर खाते हैं। यह भी अङ्गुर पाता, किन्तु अल्प पड़ जाता है। यही भारत, सिंहल, सुमात्रा और मलयके कितने ही द्वीपमें अङ्कर खोदकर लगा देते हैं। वृष्टि होनेसे हो। स्वभावतः उत्पन्न होती है। कचुका रस रक्तस्तम्भन अङ्कर फटता है। पुरातन कचुका मुख चार या छह है। उबाली और छो नौ कचुको तरकारी बहुत अच्छी इच्च परिमाण काट छांट कर लगा सकते हैं। ग्राहस्थ बनतो है। पत्तियों को भी उबाल कर खा सकते हैं। अपने घरमें इसोप्रकार दो-चार वृक्ष बनाया करते हैं। किन्तु किनकिनाहट निकालनेके लिये अच्छी तरह कटे-कंटे अङ्करको कचु बहुत बड़ी होती है। कचुकी उबाल लेना चाहिये। कचु भूनकर भी खायो कृषि करनेवालों के लिये मूलका वीज लगाना हो जाती है। युक्ति-सङ्गत है। खेत गहरा जोतना पड़ता है। कचुला (हिं० पु०) चौड़े पैदेका कटोरा। क्योंकि मट्टी जितनी ही दूरतक बनी-चुनी रहेगी, कच कचमर (हिं० पु.) १ जंगली गूलर। २ कुचला, उतनी ही बड़ी निकलेगी। हलकी जगह कुदालसे | एक प्रचार। यह कुचलकर बनाया जाता है। मट्ठी खोद लेना अच्छा है। मट्टीको बारीक बना ३ कुचली हुयी चीज़। लेना और घास-फूस फेंका देना चाहिये। फिर खेत- कचूर (हिं. पु०) १ कचुर। यह हलदौके पौदे- पर मई चलायो और दो फोट या डेढ़ हाथके अन्तर जैसा देख पड़ता, किन्तु मूलमें भेद रहता, जो खेत पङ्करकी कतार लगायी जाती है। प्रत्येक पावरक लगता और कपूरको भांति महकता है। कचर मध्य भी दी फोट या डेढ़ हाथका पन्तर रहना पाव समग्र भारतवर्ष में लगाया और हिमालयको तराई में श्यक है। अङ्गुर पति क्षुद्र होते भी लगाया जा खयं पाया जाता है। २ कटोरा। सकता है। क्षेत्रको नियत परिष्कार और वृक्षका | कचरक (सं. लो. ) कचूर, हुइया । ___Vol. III 153°
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