पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६०५

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कसावीज-कङ्गुनी दुमसे मकरध्वज (चेदि संवत् ७००), गोपाल- दगदित्वात् साधुः । अशोक वृक्ष । अमरने इस देव (चेदि संवत ८४.) और यशोराज (चेदि संवत् शब्दको स्त्रीलिङ्ग माना है। १११.) प्रभृति कई लोगोंका शिलानुशासन निकला कोल (स'. पु.) १ नागराजविशेष। २ 'गण- है। (हिं.)२ कर्कशा, लड़ने-झगड़नेवाली । ३ नोच पत्याराधन' नामक ग्रन्थप्रणेता। ३ स्वनामख्यात एक जातिविशेष, एक कमीना कौम। कङ्काली किंगरो सुगन्ध पण्य द्रव्य, शीतल चीनी। इसका फल वृहत् बजा-बजा भीख मांगा करते हैं। और कठिन होता है। कोल औषध और तैलादि- कावीज (सं.ली.) गोशोष-चन्दनका वीज। में पड़ता है। यह कट. तित, उष्ण, मुख जाड्यहर, कङ्किरात (स. क्लो०) कुरुण्टक, लाल झाड़। दीपन, पाचन, रुच्य और कफवातघ्न है। (राजनिघण्ट) कङ्ग (सं० पु.) वते सहतं प्राप्नोति, कल-उन् । कोलक, कडोल देखो। १ उग्रसेनके पुत्र और कसके भ्राता। कंसके कोलको (सं. स्त्रो०) कोलवृक्ष, शीतलचोनीका पाठ भ्राता थे-सुनामा, न्यग्रोध, कङ्क, शङ्क, सहु. पेड़। यह तिक्त, ग्राही, उष्ण, रुचिकर, मलावष्टम्भ- राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। २ तृणविशेष, कर, पित्तल एवं अग्निदीपन होती और कफ, प्रमेह, एक घास। कुष्ठ तथा जन्तुको विनाश कर देता है। (द्य कनिघण्ट) काष्ठ (सं• क्ली. ) कोः समीपे तिष्ठति, कङ्ग-स्था कोलतिता, कडोलको टेखो।। कषत्वच। १ पातीय मृत्तिकाविष, किसी किस्मकी कल (सं० लो०) के सुख खलति अनेन, क-खल पहाड़ो मट्टी। इसका संस्कृत पर्याय कालकष्ठ, वाहुलकात् उ। पापभोग, सज़ा। विरङ्ग, रङ्गदायक, रचक, पुलक, शोधक और काल- | कङ्ग (म. पु.) क्लोम, फेफड़ा। पालक है। भावप्रकाशके मतमे हिमालयके शिखर-कङ्ग (सं० स्त्री०) के सुखं प्रनयति, कं-अगि-णिच. में यह मृत्तिका उपजती है। कष्ठ विविध कु। धान्य विशेष, एक अनाज। इसका संस्कृत होता है-नालिक रौप्यवर्ण और रेणुक स्वर्णवर्ण । पर्याय प्रियङ्ग और प्रियङ्ग है। भावप्रकाश के मतसे दोनों में रेणक ही अधिक गुणशाली है। कष्ठ गुरु. यह धान्य चार प्रकारका होता है-कृष्ण, रक्त, सिन्ध, विरेचक, तिक्त, कटु, उष्ण एवं वर्णकारक और खेत और पोत। पोत कङ्ग सर्वापेक्षा श्रेष्ठ है। यह छाम, शोथ, उदरामान, गुल्म, पानाह तथा कफ भग्नसन्धानकारक, वातवर्धक, हहगा, गुरु, सूक्ष्मण- नाशक होता है। हिमालय के पादशिखर में उत्पन्न नाशक और अश्व के लिये विशेष उपकारक है। होनेवाला हरताल-जैसा एक पत्थर। कङ्गका (सं० स्त्री० ) कङ्ग खार्थे कन् टाप् । धान्य काइष (सं० पु.) ककि-ऊषन्। आभ्यन्तर देह, विशेष । · कङ्ग देखा। . शरीरका बाभ्यन्तर प्रदेश, जिस्मका भीतरी हिस्सा। कणिका (सं० स्त्री०) १ महाज्योतिष्मती लता, कर (सं. पु०) कङ्कत लौल्य प्राप्नोति भक्षणायेति रतनजोत। २ढगाधान्य विशेष, एक जंगली पनाज। शेषः, ककि-एरु। १ काकविशेष, एक कौवा । | कगुणी, कणिका देखो। . २वक पची, बगला। कङ्गणीपत्र (सं० पु.) का चौपवा देखो। . करेन, कोलि देखो। | कणोपना (सं० स्त्रो०) पण्यन्धा नाम तृणविशेष, बोलि (स'• पु० ) के सुख तदर्थ केलियंत्र, बहुव्री.। एक घास। अशोक वृक्ष। कङ्गनी (सं० स्त्री.) कहानीयते कङ्गशब्देन ज्ञायते, कोन (सं• पु०) ककि-एन । वास्तूक शाक, कङ्ग-नो बाहुलकात् ड-डोष्। १ पधान्यविशेष, एक बथुवा। । भनाजी घास। युक्तप्रदेशमें इसे मालकांगनौ कहते बाकि (सं. पु.) का वासकात् एलि पूषोः है। संस्कृत पर्याय ज्योतिमती, कटभी, पहि, रुकि: