कङ्कर-कङ्काल और संस्थानपर उपयोगी होनेसे सकल यन्त्रोंकी कशाय (सं. पु.) कङ्ग व शेते, कडू-भी-च। अपेक्षा श्रेष्ठ समझा जाता है। ३ वाणविशेष,एक तौर। कुकर, कुत्ता। "मानसिपमुखान् वाणान् काकक इमुखानपि।" (रामायथा हा७८ ब०) कला ( स्त्री) १ उग्रसेनकी कन्या और कसकी कार (स• त्रि०) क सुख किरति क्षिति, क-क- भगिनी। २ गोशीर्षचन्दन, किसी किस्मका सन्दल। अच। १ कुतसित, खराब। (ली.) जलं ३ उत्पलगन्धिका। कोयते अत्र, क-क प्राधारे अप। २ घोल, महा। कङ्काल (सं० पु०) के शिरं कालयति क्षिपति, कम- ३शत नियुत संख्या, दश करोड़। (हिं. पु.) कल-णिच-अच। शरीरास्थि, ठठरी। इसका संस्कृत कंकड़, एक खनिज पदार्थ । (Nodular limestone) पर्याय कर और अस्थिपञ्जर है। कङ्काल वा भारतवर्ष में इन स्थानोंपर कवर मिलता है-अलीगढ़, अस्थिपञ्जर देहका सार होता है। वकमांस विनष्ट पलाहाबाद, अमृतशहर, खम्बात, चम्पारन, चंदौसी, होते भी अस्थि नष्ट नहीं होता। इससे कहा मिरोया, गुजरात, हैदराबाद, हरोक,खान्देश,कोयाम्बा- गया है- तुर, ढाका, धौलपुर, इटावा, जयपुर, जालन्धर, जौन- "अभ्यन्तरं गतः सारैर्यथा तिष्ठन्ति भूमहाः । पुर, झालावाड़, खेरी, लुधियाना, मुंगेर, मुलतान, अस्थिसास्तथा देहा धियन्ते देहिनां ध्रुवम् ॥ मुर्शिदाबाद, मष्टरा, मुजफ्फरपुर, हिसुर, नरसिंह तस्माच्चिरविनष्टेषु त्वङ्मासेषु शरीरिणाम्। पुर, अयोध्या, प्रतापगढ़, पटना, पेशावर, पुरनिया, अस्थीति न विनश्यन्ति साराण्ये तानि देहिनाम् । सहारनपुर, सारन, शाहाबाद, शाहजहांपुर, सियाल- मांसान्यब निवद्धानि शिराभिः स्नायुभिस्तथा । अस्थौन्धालम्बनं कृत्वा न शौर्टन्ते पतन्ति वा॥' (मुनुव ) कोट, सिहभूम, सीतापुर, सुलतानपुर, तिनेवनी, उतरौला, बरधा, बलिया, बांदा, बांकड़ा, बसतो, वृक्ष जैसे अभ्यन्तरस्थ सारके सहारे डटा रहता, बिजनौर, बीकानेर, बदाऊ और बुलन्दशहर। वैसे ही अस्थिसारके सहारे मनुष्य देह धारण करता बहराल (संपु०) पिस्त का पेड़। है। शरीरस्थ त्वक, मांस प्रभृति नष्ट होते भी अस्थिका करील . (संपु.) कक इव लोलचच्चल:, लस्या विनाश नहीं होता। अस्थि समस्त देहका सार है। ।। १ मिकोचक वृक्ष, अकील, ढेर। २ सता. उसमें शिरा और स्नायु द्वारा मांस बह रहता है। विशेष, एक बेल। अस्थिके अवलम्बनसे ही मांस शौर्ण वा पतित नहीं होता। (सुश्रुत) कालोध (सं. क्लो०) कर इव लोद्यते, पालोद्यते, चरक मतसे-“त्वक मांसादिरहितः स्वस्थानस्थितः मरी- कक-लोड-स्यत्। चिच्चोटकमूल, एक जड़ी। यह रास्थिचयः कसालसंगो भवति । स च कशालः षड़को भवति यथा गुरु, पजीर्णकारी और शीतल होता है। शाखाशतमी मध्यं पञ्चमं षष्ठशिर इति।" (चरक) कवाज (स० पु.) कङ्कस्य वाज इव वाजः पक्षो त्वक एवं मांसादि रहित तथा स्वस्थान पर भवः । स्थ, मध्यपदलो। १ क-पत्र नामक वाणविशेष, स्थित देहका अस्थि समुदय कङ्काल कहाता है। एक तीर। २ कइका पक्ष, बगलेका बाज । यह छह अंशमें विभक्त है-चार शाखा, पश्चम मध्यान कहवाजित (स. पु.) कस्य बाजी जातोऽस्य, पौर षष्ठ मस्तक। अर्व शाखाहयको बाहु और कहवाज-दूसच। तदस्य सनातं वारकादिभ्य इतच्च् । पारा । अधःशाखा इयको सथि कहते हैं। कपक्षयुक्त वाय, एक तीर। युरोपीय शागैरतत्त्वविदोंने भी कहालको प्रधानतः बहशत्रु (सं० पु. ) ककस्य शत्रुः । तत्। पत्रिपर्णी, तीन अड्डोंमें विभक्त किया है-१ उत्तमात्र वा मस्तक • ससना प्रयोगानुसार इस उजिद द्वारा कापची ( Head ), मध्याज वा स्कन्ध ( Trank) और शाखा विनष्ट होता है। | (Extremities) ..
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६०१
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