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इक्यानवे-इक्षु


इक्यानवे (हिं० वि०) एकनवति, नब्बे और एक, ९१।
इक्यावन (हिं० वि०) एकपञ्चाशत्, पचास और एक, ५१।
इक्यासी (हिं० वि०) एकाशीति, अस्सी और एक, ८१।
इक्षव (सं० पु०) इक्षु साधारण, मामूली नायशकर या गन्ना।
इक्षाणिका (सं० स्त्री० ) अनिक्षु, किलक, सरकण्डा। यह वृक्ष भी बिलुकुल गन्ने-जैसा ही मीठा होता है। बालक इसका क़लम बनाते हैं। प्रायः इक्षाणिका जलके निकट होती है।
इक्षु (सं० पु०) इष्यते, मधुरत्वात्, इष-क्सुः।
वाञ्छे इषेः क्सुः। उण् ३।१५७। १ मधुर रसयुक्त स्वनामख्यात वृक्षविशेष, नायशकर, ईख, गन्ना। (Saccharum officinarum ) हिन्दुस्थानमें प्रायः इसे ऊख या पौंड़ा कहते हैं। इक्षु शब्दके पर्याय यह हैं,- रसाल, कर्कोटक, वंश, कान्तार, सुकुमारक, अधिपत्र, मधुतृण, वृष्य, गुड़तृण, मृत्य पुष्य, महारस, असिपत्र, कोशकार, इक्षव और पयोधर। रक्तेक्षुको सूक्ष्मपत्र, शोण अथवा लोहित कहते हैं।

इक्षु सुदृढ़ वेत्र जैसा डण्ठल रहता और ८ से १२ फीट तक बढ़ता है। पुष्पोंकी चूड़ा पक्षतुल्य होती है।

इक्षुमूल शामक और मूत्रवर्धक है। बाजारमें गन्ना खानेके लिये बिकता है। कोयी-कोयी इसके टुकडे उतार कर रखता है। गन्ने को छीलकर जो आंवले जैसा खण्ड किया, वह गंडेरी कहा और भोजनोपरान्त खानेका मुख्य द्रव्य गिना जाता है। पत्ती पशुके चारेका काम देती है।

इक्षु प्रायः सकल पृथिवीके देशमें उपजता है। भारतवर्षके अनेक स्थानमें इसकी कृषि करते हैं। इक्षुके फोकसे कागज़ बनता है। पत्रसे चटायी तैयार कर सकते हैं।

इक्षु बारह प्रकारका होता है,- १ पौण्ड्रक, २ भीरुक, ३ वंशक, ४ शतपोरक, ५ कान्तार, ६ तापसेक्षु ७ काष्ठेक्षु, ८ सूचिपत्रक, ९ नैपाल, १० दीर्घपत्रक, ११ नीलक और १२ कोशक्वत्।

Vol. III. 2


पौण्ड्रक एवं भीरुक वायु और पित्तको मिटाता है। इसका रस और गुड़ मधुर, अति शीतल तथा बलवर्धक है। कोशकृत-गुरु, शीतल और रक्त तथा पित्तको नाश करनेवाला निकलता है। कान्तार गुरु, बलकारी, श्लेष्मार्धक, स्थूलतासम्पादक और रेचक है। दीर्घपत्र अति कठिन होता है। वंशक क्षारलवणाक्त है। शतपोरक कुछ-कुछ कोशक्वत्का गुण रखता; किन्तु अल्प उष्ण, लवणाक्त और वायुनाशक ठहरता है। तापसेक्षु मृदु मधुर, श्लेष्मावर्धक, प्रीतिप्रद, रुचिजनक, शक्तिवृद्धिकारक और बलकर है।

सामान्य इक्षु खानेसे रक्तपित्त घटता और बल, शुक्र तथा कफ़ बढ़ता है। पका लेनेसे यह मधुर, स्निग्ध, गुरु, अतिशय शीतल और मूत्रको परिष्कार करनेवाला है। इक्षुका मध्य तथा मूल मधुर और स्वादु होता है। गांठ, छाल और अग्रभाग लवणाक्त है। मूलके ऊपरका भाग सुमिष्ट और मध्यभाग अति मधुर लगता, फिर क्रमसे आगे नीरस एवं लवणाक्त निकलता है। भोजनसे पहले चूसनेपर इक्षु पित्त और पीछे वायुको बढ़ाता है। रोटी खाते समय लेनेपर यह गुरुपाक हो जाता है। दांतसे छीलकर खानेपर इक्षु क्षुधा बढ़ाता, मुखको तृप्त करता और जीवनका हित साधता है। इससे वायु, रक्त और पित्त नष्ट होता है। यह अधिक मिष्टान्न और प्रीतिजनक है। रक्त और धातु बढ़ता है। रक्तदोष और भ्रम दूर होता है। अल्प परिमाण श्लेष्मावर्धक, मनस्तुष्टिकर एवं मुख-रुचिजनक है। शरीरमें कान्ति और बलकी वृद्धि होती है। खानेमें यह अमृततुल्य निकलता, अथच त्रिदोषनाशक रहता है। यन्त्रसे निकाल कर पीनेपर रस अति शीतल, कोष्ठपरिष्कारक, मुखरुचिकर और गात्रदाहकर है। बासी इक्षुका रस अच्छा नहीं होता। वह अम्ल एवं वातनाशक तथा गुरु, पित्तकर, शोषकर, भेदक और अतिमूत्रकर है। गर्म करनेसे रस चिक्कण, गुरु, अत्यन्त, तीक्ष्ण, आनाह और कफ तथा किञ्चित पित्तनाशक होता है। अतिपाकमें विदाह, पित्तदोष