इन्द्रवारुणी-इन्द्रविड्दा इन्द्रवारुणी (सं० स्त्री०) इन्द्रवरुणयोरियं वा इन्द्र-। इस औषधका व्यवहार किया था। उदर ढोल-जैसा वरुणो देवते अस्याः इत्यण-डोप ; इन्द्रस्य श्रात्मनो फूलने, तीव्र वेदनाविशिष्ट पैत्तिक विवमिषा तथा वारुणीव प्रिया । १ लताविशेष, इन्द्रायन । (Citrallus वमन लक्षण झलकने और वृहत् एवं सरल अन्त्रमें Colocynthis) वैद्यशास्त्रके मतसे इसके पर्याय वाचक प्रदाह उठने पर इन्द्रवारुणी देते हैं। डाकर इसके ये शब्द हैं,-विशाला, ऐन्द्री, इन्द्र, अरुण, गवादनी, | मतसे यह तरुण ग्ध्रसीपर पुरातन रोगको अपेक्षा क्षुद्रसहा, इन्द्रचिर्भिटी, सूर्या, विषघ्नी, गजकनिका, | अधिक उपकार करती है। व्यथित अङ्गके उत्तोलनसे अमरा,माता,सुकर्णी, सुफला,वारुणी, बालकप्रिया, रक्त- वेदना बढ़ने एवं क्रमागत सञ्चालनसे उपशम पाने रु,तारका, वृषभाक्षी, पीतपुष्या, इन्द्रवल्लरी, हेमपुष्यो, और साथ ही उदरामय तथा अन्त्रशूल उठनेपर इन्द्र- क्षुद्रफला, वल्ली, चित्रकला, चित्रा, गवाक्षी, गजचिसिंटी, वारुणी अत्यन्त लाभदायक है। पहले जलवत् एवं मृगेर्वारु, पिटङ्कोको और मृगादनी। इन्द्रवारुणी | आममिथित, पीछे पित्त तथा रक्तमिश्रित और उत्तमाशा अन्तरोप, मित्र, तुर्कस्थान, भूमध्य-सागरके प्रस्तरखण्डके मध्य प्रेषित अन्त्र जैसी उदरवेदनाविशिष्ट द्वीपसमूह और भारतवर्षमें स्वयं उत्पन्न होती है। रक्त आमाशयमें केलोसिन्य उपयोगी है। मस्तक गुणमें यह तिक्त, कट, शीतल, रेचन और गुल्म, पित्त, भारी पड़ने, चक्षुः तथा कपालके मध्य अत्यन्त ज्वाला श्लेष्मा, कृमि, कुष्ठ तथा ज्वरको नाश करनेवाली उठने, और सूच या बालपीन विद्ध-जैसी यन्त्रणासे है। (राजनिघण्टु ) आलोपाथिक मतसे इन्द्रवारुणी विशिष्ट अर्धशिरःशूल होने पर इन्द्रवारुणीका प्रयोग अति विरेचक होती है, क्योंकि यह अन्त्रको ग्लेभिक करना चाहिये। इसका फल नारङ्गी-जैसा पीला या झिल्लीको उग्रता प्रदान करती है। इसको अधिक मात्रा- लाल होता है। उसयर खरबूजाको तरह फांक होती है। में सेवन करनेसे यह प्रदाहिक विषक्रिया फैलाती है। खान में वह अतिशय कटु लगता है। इसके गूदेसे औषध शोथ, उदरी, कोष्ठवद्ध एवं सन्यास प्रभृति रोगमें विरे बनती है। और महिष एवं उष्ट्रपक्षी उसे खाते हैं। चन और प्रत्य ग्रता लाने के लिये इन्द्रवारुणीका व्यवहार | अफ्रीकामें कोई-कोई इसके वीजको भी खाते हैं। किया जाता है। इसके सेवनसे कभी-कभी उदर में इन्द्रवारुणोका ताजा मूल दन्तमार्जनमें काम आता वेदना उठती है,तबीयत मिचलाती और के आने लगती है। अफीकाके नौलनद-तौरवर्ती कोयो-कोयो लोग है। ऐसी अवस्थामें कपूर किंवा कोनारम देने पौड़ा इसके फलसे एकप्रकारका रस निकालते हैं और उसे मिटती है। आलोपाधिक मात्रामें इन्द्रवारुणी खानेसे पानी भरनेको मशकमें लगाते हैं। इसके गन्धसे ऊंट अनेक समय नाना रूप विघ्न पड़ सकता है। इसलिये मशकको काट नहीं सकते। २ गोरक्षककटी, फट । हरसमय इसे कोई व्यवहारमें नहीं लाता। विशेष इन्द्रवाह (वै. पु०) इन्द्रको ले जानेवाला। आवश्यक होनेसे विवेचनापूर्वक इन्द्रवारुणीको खाना | इन्द्रविडा (सं० स्त्री० ) व्रणरोगविशेष, किसी किस्मकी चाहिये । इसका सार और वटिका व्यवहार्य है। मात्रा फुन्सी। यह वात-पित्त बिगड़नसे त्वक्पर जल- दो से दश ग्रेन तक होती है। होमियोपाथिक मतसे पूर्ण क्षुद्र-क्षुद्र किंवा वृहत् वृहत् स्तवकमें पड़ यह सरल अन्चके प्रदाह, अतिसार, रक्तातिसार, जाती है। इन्द्रविद्धाका उद्भेद (खाज)की तरह एकत्र गृध्रसी, अर्धशिरःशूल, सायुशूल, अन्त्रशूल, वात, न हो स्वतन्त्र भावमें अवस्थित रहती है। इस सन्धिवात, डिम्बाशयके स्नायवीय रोग और नाना रोगमें प्रथम परिष्कार जल वा दुग्धके समान स्राव प्रकारको पीडाओंमें दी जाती है। अत्यन्त उदर वेदना निकलता है। उसके सूखनेसे चिपचिपी चिपिटिका संयुक्त, विशेष कष्टदायक रक्तातिसार, मारक्यूरियस उपजतो. है। चिकित्सकोंके मतसे इन्द्रविद्या चार करोसाश्वास और इन्द्रवारुणीक यथाक्रम सेवनसे | प्रकारको होती है,-विम्बाकार ( Herpes-phlyc- निवृत्त हो जाता है। डाकर चूसने शूलरोग पर | tenotes ), चक्राकार (Herpes-circinatus), राम- Vol. III. 15
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