पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/५३७

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भोम् यः पुनरेतत् विमावेगवीमिचे ते न वाक्षरेण पर पुरुषमभिध्यायौव स तेजसि। यजुःस्वरूप द्वितीय मात्रा द्वारा अन्तरीक्ष एवं सामरूप स य सम्पन्नः। यथा पादोदर स्वचा विनिमुंचाते एवं ह वै स पाप्मना तृतीय मात्रा द्वारा ब्रह्मलोक और प्रोङ्काररूप साधन विनिर्मुक्त: स सामाभक नीयते ब्रह्मलोक स एतस्माजीवधनात् परात्पर्य द्वारा जरा-मृत्व विहीन शान्त परब्रह्मपद पाते हैं।७। पुरिशयं पुरुषमोचते तदैतः सोको भवतः। ५। तिम्रो मावा मूर्तिमत्य: प्रयुक्ता अन्योन्यसन्ना अनविप्रयुक्ताः। क्रियासु वाह्याभ्यन्तरमध्यमासु समाक् ___ "ओमित्ये तदक्षरमिदं सर्व तस्यौपव्याख्यान' भूतं भवभविश्यदिति प्रयुन्नासु न कम्पते ज्ञ. : ६। ऋभिरेतं यजुभिरन्तरिक्ष' स सामभिर्यत्तत् सर्वमोद्धार एव। यच्चान्यत्रिकालातीतं तदपयोङ्कार एव।” “सर्व ो तद कवयो वेदयन्ते । तमो काग वायतन नान्वे ति विहान् यत्तच्छान्तमजरम- ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ।” (माण्डु क्योपनिषत् ) मृतमभय परचेति ॥ ३ (प्रयोपनिषत् ५ प्रश्न) यह समुदय ही ब्रह्म है। हमारा जो जीव प्रात्मा ओडार हो पर और अपर ब्रह्म है। विहान इस है, वह भी ब्रह्म है। उसी आत्माका अभिन्न ब्रह्म ओङ्कार (ोङ्कारको उपासना) हारा पर और चार अंशमें विभक्त है। अपर ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। २ । जो व्यक्ति एकमात्रा.. जैसे रज्ज प्रभृति सपैके विवत और अद्वितीय ब्रह्म विशिष्ट ॐकारको उपासना उठाता, वह अति सत्वर विश्वप्रपञ्चका अधिष्ठान ठहरता, वैसे ही ओङ्कार समु- ही पृथिवी पर जम्म पाता है। श्रीङ्कारको प्रथम मात्रा दय वाकप्रपञ्चका एकमात्र प्राधार पड़ता है। (अर्थात् ऋग्वेदस्वरूप है। प्रथम मात्रा ही उपासकको मनुष्य इस श्रोङ्कारमें ही समुदय वाक्य परिकल्पित है) वह लोक पहुंचाती है। (प्रथम मात्राकी उपासना करनेसे ओङ्कार ब्रह्मस्वरूप है, क्योंकि प्रोङ्कार ब्रह्मका अभि- मनुष्यलोक मिलता है।) इस मनुष्यलोकमें वह | धायक है। (अभिधायक शब्द अभिधेयसे भिन्न नहीं) उपासक ब्रह्मचर्य एवं श्रद्धासम्पन्न हो नाना पोद्धार विवर्त शब्दाभिधेय प्राण और घटादि सकल विध महिमा अनुभव करता है।३। जो व्यक्ति हो आत्माका धर्म है। किन्तु उक्त प्राणादि अभिधायक हिमावा विशिष्ट प्रोङ्कारकी उपासना करेगा, वह! वाक्यसे भिन्न नहीं। इसीसे लिखा है- यजुर्वेदस्वरूप हिमात्रा द्वारा अन्तरिक्ष लोक पहु “वाचारम्भण' विकारो नामधे यम्।" चेगा; फिर सोमलोकमें नानाविध विभूति अनु- अर्थात् वाक्य द्वारा प्रारब्ध वस्तुमात्र नाममात्र हैं। भव कर इहलोकको चलेगा। ४। जो व्यक्ति सुतरां पक्षरात्मक श्रीङ्कार परिदृश्यमान ममुदयसे विमात्राविशिष्ट श्रोङ्कार द्वारा उस परमपुरुषको अभिन्न है। 'प्रोङ्कारको समुदय' मान उपासना करनेसे ध्यान करता, वह सूर्यरूप तेजःसम्पन्न बनता है। ब्रह्मप्राप्ति होती है। अर्थात् ओङ्कारको उपासनासे जैसे सर्व प्राचीन चमे छोड़ कष्टसे कटता, वैसे ही जब चित्त निर्मल रहेगा, सभी ब्रह्म स्प उक्त उपासक भी सामरूप ओङ्कारसे ब्रह्मलोक पड़ेगा। फिर ब्रह्मपद मिलने में विलम्ब नहीं होता। पहुंचता और जीवसमष्टिरूप हिरण्यगर्भसे उत् यह ओङ्कार ब्रह्मज्ञानको प्राप्तिका उपाय होनेसे ब्रह्मका कृष्ट सर्व शरीरानुप्रविष्ट परब्रह्मको देख सकता निकटवर्ती है। अतीत. भविष्यत और वर्तमान- है। उसी ओङ्कारको मूतिमती तोम मात्रा-प्रकार, हमारा सब ज्ञानगम्य ओङ्कार ही है। उकार और मकार हैं। वह तीनों प्रात्माके ध्यानको "सोऽयमात्माऽध्यक्षरमीद्वारोऽधिमाव पादामावामाबाच पादा प्रकार क्रियामें लगा करती हैं। उक्त तीनों मात्राका परस्पर उकारी मकार इति । ८ । नागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः । प्रथमा मावा- सम्बन्ध विद्यमान है। उनका प्रयोग एकही विषयमें रादिमत्वादाप्रोति ह वै सर्वान् कामानादिश्च भवति यः एवं वेद ।। स्वप्नस्थान- होता है। किसी क्रिया में उनका अप्रयोग नहीं संजस उकारी द्वितीया मावोत्कर्षाटुभयवाहोत्कर्षति ह व जानसन्तति समानश्च भवति नास्या ब्रह्मवित्कुल भवति य एवं वेद । १०। सुषुप्तस्थानः पड़ता, किन्तु समुदाय वाहा, प्राभ्यन्तर और मध्यविध प्राशो मकारस्त तीया मात्मामितेरपौतेर्वा मिनोति इ वा इद सर्वमपौतिक क्रियामें प्रयोग चलता है। जो व्यक्ति ओङ्कारका भवति च एवं वेद । ११। अमाववतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽवैत विभाग विशेषरूपसे जानता, वह कभी विचलित नहीं एवमोद्धार पात्म व सविशत्यात्मनाऽत्मान य एवं वेद । १२ ।" , होता। जानौ कस्वरूप प्रथम मानाहारा इहलोक, . वह पामा पक्षरको अधिकार कर अवस्थित है।