प्रोकारमान्धाता ५२७ नहीं रहते। मेरु तुम्हारी अपेक्षा उच्च है। उसमें | आजकल दोपके मध्यभागमें ओङ्कारलिङ्गका और देवता वास करते हैं।' यह कहकर नारद जहांसे | नदौके दक्षिण-भागमें अमरेश्वरका मन्दिर है। स्थानीय आये, वहीं चले गये। पीछे विन्ध्य अपनेको धिक्कार दे पूजक श्रोङ्कारको प्रादिलिङ्ग कहा करते हैं। रेवा- परिताप करने लगे और शिवको पूजने की इच्छासे खण्डमें भी ओङ्कारको प्रादिदेव बताया है। आजकल जहां प्रोङ्कार विद्यमान है, वहीं आकर ____ "ओडारमादिदेवश्च ये वै ध्यायन्ति नित्यशः।” ( २२१०) पहुंच गये। यहां उन्होंने मृत्तिकाके एक शिव बनाये तीर्थयात्री द्वादश ज्योतिलिङ्ग दर्शन करनेकी और एक स्थानमें रह अचल भावसे छह मास इच्छासे पा पहले सोनारमान्धाता और पोछे शिवके शिवके ध्यानमें विताये थे। पाशतोष प्रसन्न हुये और ; पार्थिवलिङ्ग अमरेश्वरका दर्शन लेते हैं। पश्चिमके विष्यको सम्बोधन कर कहने लगे,-'अपनी इच्छाके शास्त्रज्ञ पण्डित इसो पोङ्कारमूर्तिको ईखरका प्रक्चत अनुसार वर मांगो।' तब विधा कातरकण्ठसे बोल | लिङ्ग मानते हैं। उठे,-'हे देवादिदेव ! यदि आप प्रसन्न हुये हैं, तो जिस समय देवद्देषो सुलतान् महमूदने .सोम- मेरी इच्छाके अनुसार शरीर बढ़ायिये । प्रभो! आपका नाथका मन्दिर तोड़ा, उस समय भो भोकार और जो ज्योतिर्मय रूप (ोङ्कार) सकल वेदोंमें वर्णित अमरेश्वरका भाव भोंड़ा न था। उक्त दोनों मन्दिरों के है,उसी भक्तवाञ्छित रूपसे मुझे दर्शन दीजिये । महा अतिरिक्त अनेक लिङ्ग और मन्दिर विद्यमान रहे। देवने भक्तको वाञ्छा पूरी की और मनोभाव प्रकाशकर उन सकल प्राचीन मन्दिरोंमें विधर्मी मुसलमानोंके यह बात कह दो,-'क्या करें, प्रशभ वरदान अन्यको उत्पातसे कई एककाल ही नष्ट हुये, कई वसाव- दुःखजनक होगा सही. तथापि तुम्हारी इच्छा हमने शेषमें पड़े और कई अङ्गहीन अवस्थामें खड़े हैं। किसी पूर्ण की।' इसी समय देवों और ऋषियोंने शिवका पूजन किया और उनसे वहीं उसी रूपमें रहनेको इति निश्चित्य तवैव पोद्धारं यन्त्र के स्वयम् । कहा। महादेव मानवक सुखको वहीं ठहर गये। कृत्वा चैव पुनस्तव पार्थि वौ' शिवमूर्तिकाम् ॥ ४८ इसी प्रकार एकमूर्ति ओङ्कार और पार्थिव लिङ्ग दो पारराध तदा शम्भु षण्मासञ्च निरन्तरम् । भागमें विभक्त हुआ। प्रोङ्कारमूर्ति का सदाशिव पौर न चचाल तदा स्थानाच्छिवध्यान् पराययः ॥ ५० पार्थिव लिङ्गका नाम अमरेश्वर है।" प्रसन्नच तदा शम्भु ब्रू हि त्व मन सेप्सितम् । तस्म च दर्शयामास टुलर्भ योगिनामपि ॥ ५१ + “भोकारश्च यथा ह्यासीत् तथा च श्रूयतां पुनः । रूपं यथोक्त वेदेषु भक्तानामौसितञ्च यत् । कमि'चित् समये चाव नारदो भगवस्तिदा । ४२ यदि प्रसन्नो देवेश इद्धि धेहि यथेप्सितम्। ५२ गोकर्णाख्य शिवं गत्वा मागतो विष्यकेश्वरम् । किं करोमि यदा तेन बियते दीयते मया । तव व पूजितस्तेन वहुमानपुरःसरम् ॥ ४३ न युक्त परदुःखाय वरदान' ममा शुभम् ॥ ५३ • मयि सर्वञ्च विद्यत न न्यन हि कदाचन । तथापि दत्तवांस्तव यथेप्ससि तथा. पुनः । इति मान तदा श्रुत्वा नारदो मानहा तदा ॥ ४४ एवं च समये देवा ऋषयश तथाऽमचाः ॥ ५४ निश्वस्य संस्थितस्तव त्रुत्वा विन्धयोऽब्रवौदिदम् ।। सम्पूज्य शङ्करं तब स्थातव्यमिति चात्रुवन् । किं न्यूनच त्वया दृष्ट' मयि निश्वासकारणम् ॥ ४५ तथे व कृतवान् देवो लोकानां सुखहेतवे ॥ ५५ वच्छुत्वा नारदो वाक्यमुवाच 5 यतां पुनः । पोंकार चैव यन्त्र वै लिङ्गमैक तथा पुनः । त्वयि तु विद्यते सर्व' मैरुरुचतरं पुनः ॥ ४६ पाधि दे च तथारूपे लिङ्गमैक तथा पुनः ॥ ५६ देवेष्वपि विभागोऽस्य न तवास्ति कदाचन । ' एवं इयं समुत्पन्न लिगमकं हिधा वतम् ।। इत्य का नारदस्तव जगाम च यथागतम् ॥ ४७ प्रणवे चोङ्कारच नामासीत् स सदाशिवः ॥ ५७ विन्धयश्च परिवतो वै धिगेव नौवितादिकम् । पार्थिव चैव यज्जातं तदासौदमरेश्वरः।" -विश्वेश्वरं वथा शम्भु समाराध्य नपाम्यहम् ॥ ४८ (शिवपुराण, चानसहिता ४६१०)
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/५२८
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