पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४४६

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ऋषभ-ऋषि लगे। उनका सुन्दर देह मलमूत्रसे पाच्छन्न हुआ. चैत्राष्टमीको दीक्षित हुये थे। फिर एक वर्षतक नाना था। किन्तु आश्चर्यका विषय यह ठहरा, कि विष्ठामें स्थान घूम मुरिमतल नामक स्थानपर यह पहुंचे। दुर्गन्धका नाम भी न रहा। इसीप्रकार वह नाना यहां फाल्गुन मासके कृष्णपक्षको तीन दिन उपवासके स्थान घमने लगे। कुछ काल घम-फिर ऋषभदेवने पीछे इन्होंने ज्ञानलाभ किया था। इनके ८० गणधर, देह छोड़ना चाहा था। उस समय वह कोकण, | ८४००० साधु, ३००००० साध्वी, ८००० अवधिन्नानी, वेङ्कट, कुटक और दक्षिण कर्णाटक देश जा पहुंचे। १०००० केवली, ३५०००० श्रावक, ५५४००० श्राविका, वहां कुटकाचल उपवनके निकट कितनी ही क्षुद्र ४७५० चतुर्दशपूर्वी और १२७५० मनपर्याय थे। शिला उठा उन्होंने मुखमें डाली थीं। फिर ऋषभदेव प्रथम गणधरका पुण्डरीक और ग्रथम आर्याका नाम उन्मत्त के न्याय घूमने लगे। दैवात् वनमें दावानन्न ब्राह्मो था। आयुःका परिमाण ८४ लक्ष पूर्व कहते भड़का था। उसी अनल में वह जल गये। .ई। ऋषभदेवको अष्टपद नामक स्थानपर चैत्रमासको भागवतमें ऋषभदेवका धर्ममत इसप्रकार कहा है। कृष्णात्रयोदशीके दिन पद्मासनमें मोक्षपद मिला था। मानव देह पा मनुष्यको समुचित आचरण करना (जैनहरिवंश ८ सर्ग, आदिनाथपुराण एव जैनतत्त्वादर्श १९-२० पृ०) चाहिये। जो सकलका सुहृद्, प्रशान्त, क्रोधहीन ऋषक (स.पु.) वैद्यकोत अष्टवर्गान्तर्गत औषध- एवं सदाचार रहता और सब पर समान दृष्टि रखता, विशेष, एक जड़ी। ऋषभ देखो। वही महत् ठहरता है। जो धनपर स्पृहा तथा पुत्र ऋषभकूट (सं० पु०) हेमकूट पर्वत, एक पहाड़। कलत्रादि पर प्रीति नहीं रखता और ईश्वरपर निर्भर ऋषभगजविलसित (सलो.) षोड़शाक्षर छन्दों- कर चलता, वही मनुष्यों में बड़ा निकलता है। विशेष, सोलह सोलह अक्षरोंके चार पादोंका एक छन्द। इन्द्रियको दृप्ति हो पाप है। कमैस्वभाव मन हो “भविननैः स्वरात् खमषभगजविलसितम्। ( वृत्तरवाकर ) शरीरके बन्धका कारण बन जाता है। स्त्री-पुरुष ऋषभतर ((सं.पु.) भारवहनासनई वृष, जो बैल मिलनसे परस्परके प्रति एक प्रकार प्रेमाकर्षण होता बोझ ढो न सकता हो। है। उसी पाकर्षणसे महामोहका जन्म है। किन्तु ऋषभदायो ( त्रि.) वृषप्रदान करनेवाला, जो उस आकर्षणके टलने और मनके निवृत्ति-पथपर चल- बैल देता हो। नैसे संसारका अहङ्कार जाता तथा मानव परमपद ऋषभदेव (सं० पु०) भगवान के एक अवतार ! ऋषभ देखो। पाता है। ऋषभद्वीप (सं० पु०-लो०) ऋषभइव खेत: होपः, भागवतमें लिखत, कि ऋषभदेव स्वयं भगवान् और मध्यपदलोपी कर्मधा। खेतद्दीप, किसी मुल्कका कैवल्य पति ठहरते हैं। योगचर्या उनका आचरण नाम। और आनन्द उनका स्वरूप है। (भागवत ५।४,५,६ अ०) ऋषभध्वज (सं० पु०) ऋषभो ध्वजश्चिङ्गमस्य ध्वज जैनोंने इन्हीं ऋषभदेवको अपना तीर्थङ्कर वा अस्य वा, बहुव्री०।१महादेव, अपने झण्डे में बैलका आदिनाथ माना है। जैनधर्मशास्त्रके मतानुसार- निशान रखनेवाले शङ्कर। २ एक बौद्धरूंन्यासी। ऋषभदेवने सर्वार्थसिद्धि नामक विमानसे उत्तराषाढ़ा षभी (सं० स्त्री० ) ऋषभ जातौ डोष् । १ नराकृति नक्षत्नमें धनुशियर चैत्रमासको कृष्णाष्टमी तिथिको स्त्री, मदको सूरत-शकल रखनेवाली औरत । इक्ष्वाकुवंशीय नाभिके औरस और मरुदेवीके गर्भसे २ कपिकच्छ लता, कोंच । ३ विधवा, बेवा। ४ शिराला। विनीता नगरी में जम्म लिया था। यह नौ मास चार ऋषि (सं० पु.) ऋषति गच्छति संसारमारम्, ऋष्., दिन गर्भ में है। शरीरका परिमाण ५०० धनुः रहा। इन्-कित्। इगुपधात् कित्। उण् ११८। १ज्ञानके द्वारा अङ्गको शान्ति सुवर्णप्राय थी। ऋषभदेव इक्षुरस संसारपारगत वशिष्ठादि। २. शास्त्रप्रणेता। संस्कृत पीकर श्रेयांसके निकट ४००० साधुवोंके साथ पर्याय सत्यव्रत और शापास्त्र है। ऋषि सातप्रकारक - Vol. III. . 112