पाया। ऋष्पपद् - ऋषभ ऋष्यपद (स. त्रि.) मृगचरणविशिष्ट, जिसके ! ७ पर्वत विशेष, एक पहाड़। ८ वराहपुच्छ, हिरनका पैर रहे। - सूवरकी पूंछ। कोई मुनि। १० भगवान के एक ऋश्यादि (स.पु.) पाणिनिका कहा हुआ एक । अवतार। भागवतोत २२ अवतारमें ऋषभ अष्टम . गण। इसमें ऋश्य, न्यग्रोध, शर, निलोन, विनास, हैं। इन्होंने भारतवर्षाधिपति नाभिराजाके, औरस निवात, निधान, निबन्ध, विवड, परिगूढ़, उपगूढ, और मरदेवीके गर्भसे जन्मग्रहण किया था। अशनि, सित, मत, वैश्मन्, उत्तराश्मन्, अश्मन्, स्थूल, भागवतमें लिखते, कि जन्म लेते ही ऋषभदेवके बाहु, खदिर, शर्करा, अनाह, अरभु, परिवंश, वेणु, अङ्गमें सकल भगवत् लक्षण झलकते थे। सर्वत्र । वरिण, खण्ड, दण्ड, परित्त, कर्दम और अंश शब्द समता, उपशम, वैराग्य, ऐश्वर्य और महैश्वर्यके साथ पड़ता है। उनका प्रभाव दिन दिन बढने लगा। वह स्वयं तेजः ऋष् (धातु) तुदा० पर० सक० सेट् । “ऋषीश गतौ ।” प्रभाव, शक्ति, उत्साह, कान्ति और यशः प्रभृति (कविकल्पद्रुम) १ गमन करना, जाना। २ वध करना, गुणसे सर्वप्रधान बन गये। कुछ दिन पोछे नाभि मारना। राजाने अपने पुत्र ऋषभको राज्य सौंप मरुदेवीके साथ ऋषद्गु (स० पु.) यदुवंशीय एक राजा। यह वदरिकाश्रमको पन्था पकड़ी थी। नाभि देखो। ऋषभ वृजिनीवत्के पुत्र और चित्ररथके पिता थे। देवको राज्यपर अभिषिक्त होनेसे इन्द्र ने जयन्ती नानी (भारत, अनु० १४७ अ०). कन्या दी। उस पत्नीके गर्भसे एकशत पुत्र उत्पन्न ऋषभ (स. पु०) ऋष्-अभच-कित् । ऋषिवधियां हुये। भरत ज्येष्ठ थे। कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मा- कित् । उण् ।१३। यह अन्य शब्दके पीछे लगनेसे वर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रपृश, विदर्भ और कोकट श्रेष्ठताबोधक होता है। १६ष, बैल। २ कणरन्ध, उनके बनुगत रहे। दूसरे नौ पुत्र कवि, हविः, अन्त- कानका सूराक। ३ कुम्भौरपुच्छ, मगरको पूछ। रोक्ष, प्रबुद्ध, पिपलायन, प्राविौंत्र, मिल, चमस और ४ोषधि विशेष, एक जड़ी। यह वृषके शृङ्ग जैसा करभाजन भागवत धर्मप्रदर्शक थे। अवशिष्ट ८१ होता है। ऋषभ बलकारक, शीतल, शुक्र एवं कफ पुत्र विनीत वेदज्ञ और और यज्ञशील ब्राह्मण बन गये। जनक, मधुर और पित्त, दाह, कास, वायु तथा क्षय . ऋषभदेवने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरतको राज्य सौंप रोगनाशक है। हिमालय-शिखर इसकी उत्पत्तिका परमहंसधर्म सीखने के लिये संसार त्याग किया था। स्थान है। संस्कृत पर्याय-वृष, ऋषभक, वीर, गोपति, . उसी समय उन्होंने उन्मत्तके न्याय दिगम्बर वैशमें धीर. विषाणी. धर. कयान, पुङ्गव, वोढा, सङ्गी, पालुलायित केश हो ब्रह्मावतसे पैर बढाया। ऋषभ- धूर्य, भूपति, कामी, रुक्षप्रिय, उक्षा, लाङ्गुली, गो, देवने मौनव्रत पकड़ा था। एकाको घूमते देख बन्धुर, गोरच और वनवासी है। (भावप्रकाश) कितने ही लोग उनसे पालाप करने पहुंचे। किन्तु सप्तस्वरके अन्तर्गत द्वितीय स्वर। यह बैलके | वह जड़, मूक, अन्ध, वधिर, पिशाच वा उन्मत्तके न्याय स्वर-जैसा होता है। फिर कोई इसे चातकके स्वर दण्डायमान रह कोई बात कहते न थे। उस अवस्था जैसा भी बताता है। नाभि मूलसे उठ यह अनायास पर दुष्ट लोगोंने गात्र पर मल, मूत्र, धलि एवं प्रस्तर ही ऋषभक स्वरकी तरह निकला करता है। ऋग्वेदसे फेंक, ताड़ना दे, अथवा भय देखा नाना प्रकारसे उन्हें । ऋषभ स्वरकी उत्पत्ति है। दयावती, रखनी और | विचलित करनेका चेष्टा लगायो। किन्तु वह किसीसे रतिका तीन इसकी श्रुति हैं। श्रुति जाति भी करुण | विचलित न हुये। क्योंकि उनका मनोविकार निकल मध्य और मृदु भेदसे तीन प्रकार हैं। वंश ऋषि, जाति गया था। संसारके लोगोंको अपने प्रतिपक्ष पर देख क्षत्रिय, वर्ण पिश्नर, उत्पत्ति-स्थान शाकद्दोप, ऋषि, उन्होंने अजगरव्रत पकड़ा था। ऋषभदेव एक ही एवं देवता ब्रह्मा और छन्द गायत्री है। ( सजोतरबाकर) | स्थानपर रह खाने-पीने, सोने-बैठने पौर हगने-मूतने
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४४५
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