पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४४०

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ऋतुमतो ४३६ "नियतं दिवसेऽतीते साचन्यम्बु नं यथा । रजोदर्शन होनेपर प्रकाशित और द्वादश वर्षके बाद ऋतौ व्यतीते नार्यास्तु योनि: संवियते तथा ॥ रजः न निकलनेसे अप्रकाशित वा अन्तःपुष्प कहाता मासे नोपचितं काले धमनौभयांतदातवम् । है। यथा- 'ईषत् वच्चः विगन्धञ्च वायुयोनिमुखं नयेत् ॥ “वर्षादहादशकावं यदि पुष्प वहिर्न हि। तहर्षाहादशात् काले वर्तमानमसृक् पुनः । अन्तःपुष्प भवत्ये व पनसोडुम्बरादिवत् ॥' (कश्यप) जरापक्वशरीराणां याति पञ्चाशत: क्षयम् ॥” ( मुश्रुत शारीर) बारह वर्ष के बाद भी प्रकाशित न होनेसे पुष्पको दिवावसानको पद्मको भांति ऋतुकाल बीतनेसे पनस उडुम्बरादिको भांति अन्तःपुष्प कहते हैं। नारीको योनि भी सिकुड़ जाती है। पार्तव शोणित ज्योतिषशास्त्र में निर्दिष्ट है, किस तिथिको पाद्य एक मासमें जमता और ईषत् कृष्णवर्ण एवं दुर्गन्ध- ऋतु होने से क्या फल मिलेगा। यथा- विशिष्ट हो वायु तथा धमनीके सहारे योनिमुखपर __ प्रतिपदको विधवा, द्वितीयाको पुत्रवधिनी, जा पहुंचता है। स्त्रीका ऋतु हादश वर्षसे लगा शरीर जरा जीण पड़ते पञ्चाशत् वर्ष वयस तक चलता द्वतीयाको सौभाग्यवती, चतुर्थीको सुखनाशिनी, पञ्चमीको सुभगा, षष्ठीको सम्पत्ति तथा सप्तमीको है। भावमिश्रका मत भी ऐसा ही है- धननाशिनी, अष्टमीको सुख-पुत्र-दायिनी, नवमीको "हादशब्दत्सराचं मापञ्चाशत् समाः स्त्रियः । नेशभागिनी, दशमीको सुखिनौ, एकादशोको अर्थ- मासि मासि भगहारा प्रकृत्ये वात व सवेत् ॥ आर्तवसावदिवसात् ऋतुः षोड़शरावयः । नाशिनी, हादशीको रतिवर्धिनी, त्रयोदशीको मङ्गल- गर्भग्रहणयोग्यस्तु स एव समयः स्मृतः ॥" कारिणो, चतुर्दशीको दुभंगा और पूर्णिमा एवं (भावप्रकाश पूर्वख० १म भाग) अमावस्याको आद्य ऋतु आनेसे स्त्री टुःखरोगवर्धिनी बारह वत्मरसे लगा पचास वत्सर पर्यन्त स्त्रियोंके होती है। फिर चैत्रमें विधवा, वैशाखमें बहुपुत्रवती, भगद्दारसे स्वभावतः मास-मास आर्तव निकलता है। ज्येष्ठ में रुग्णा, आषाढ़में मृत्युदायिनी, श्रावणमें धन- सरणकै प्रथम दिवससे षोड़श रात्रि पर्यन्त हारिणी, भाद्रमें दुभंगा एवं लोवा, आश्विनमें ऋत रहता,वही गर्भ ग्रहणके योगा काल ठहरता है। तपखिनौ, कार्तिक, धनहोना, अग्रहायणमें बहुपत्रवतो. वैद्यकग्रन्थ हारीतमें लिखा है- पौषमें व्यभिचारिणी, माघमें पुत्रसुखान्विता, और "रज: सप्तदिनं यावत् ऋतु भिषज्ञां वर ।" फाल्गुनमें महीना पड़नसे स्त्रोको सर्वसमृद्धि-सम्पदा हे भिषक श्रेष्ठ ! सप्तदिन पर्यन्त यावत् रजः रहता, बनना पड़ता है। आद्य ऋतुमें स्त्रोके लिये अश्विनी उसोको सब कोई ऋतु कहता है। सुखप्रद, भरणी, कामवर्धक, कृत्तिका दैन्यकारक, वाग्भटने बताया है- रोहिणी मुखद, मृगशिरा कामभोगकर, आर्द्रा सुखद, "ऋतुस्त बादशनिशा: पूर्वास्तिसश्च निन्दिताः।" (शारीरस्थान १५०) पुनर्वसु सुखकर, पुष्था सुखवधैक, अश्लेषा अशुभकारक, प्रथम दिवससे हादश रात्रि पर्यन्त ऋतकाल मघा शोकप्रद, पूर्वफल्गुनी तथा उत्तरफला नी वैधव्य- रहता है। इसके प्रथम तीन दिन निन्दित हैं। दायक, हस्ता पुत्रवर्धक, चित्रा अङ्ग-सौन्दर्यकारक, भगवान् मनुका मत है- स्वाति शुभविधायक, विशाखा सुखनाशक, अनुराधा "ऋतुः स्वाभाविक: स्त्रीणां रावयः षोडश स्म ताः । अर्थभोगकारक, ज्येष्ठा पतिवियोगवर्धक, मूला प्रशुभ- चतुर्भिरितरः सार्ध महोभिः सहिगहि त " (मनु ।४५) कारक, पूर्वाषाढ़ा अथैनाशक, उत्तराषाढ़ा सुखदायक, शिष्ठनिन्दित प्रथम चार दिन रखनेसे स्त्री श्रवणा सुखवर्धक और धनिष्ठा शतभिषा, पूर्वभाद्रपदा, काल स्वाभाविक अवस्थामें षोडश रात्रि रहता है। उत्तरभाद्रपदा एवं रेवती नक्षत्र सुखप्रद है। .. . संहिताकार दो प्रकारका ऋत बताते हैं-प्रका ऋतुमती स्त्रीको प्रथम दिनसे ब्रह्मचर्य पकड़ना, शित पौर अप्रकाशित। साधारणतः हादश वर्षसे | पड़ता है। दिवानिद्रा, अनन, अश्रुपात, सान,