उषस्त-उषाकल उषस्त (स० पु०) चाक्रायण ऋषि । "ततो होषस्तथाक्रायण : अपना वक्षः देखाती रहती हैं। नोधा ऋषिके समान उपरराम" (शतपथब्रा० १४.६५१) अपना प्रियवस्तु ढंढनेके लिये उषाने भी अपनेको उपस्ति, उपस्त देखो आविष्कार किया है। यहिणो की तरह उठकर उषा संघस्य (सं० वि०) उषस्-यत् । पाव तुपिक्रषसो यत्। पा | जगत्में सबको जगाती हैं। वह अभिचारिकावों में ४१२।३१। प्राभातिक, सवेरेवाला। सबसे भागे आती हैं। वह आकाशके पूर्व भागसे उषा ( स० स्त्री०) उष स्त्रियां टाप् । १ वेदोक्त देवता, निकल दिशावोंको चैतन्य करती हैं। वह जनक- वेदकी एक देवी। ऋक् और सामसहिताके अनेक स्थानीय स्वर्ग और पृथिवीके अक्ष में बैठ दोनोंको मन्त्रों में इन देवीकी स्तुति की गयी है। भरपूर फैलाती हैं। ऋकसंहिताके मतस-यह पाकाशकी कन्या "सदृशौरद्य सदृशौरिद्य श्वो दीर्घ रुचन्ते वरुणस्य धामः । (ऋक् १४८१६) भग एवं वरुणको भगिनी (ऋक् अनवद्यास्त्रि'शतं योजनाने कैका क्रतु परिधन्ति सद्यः ॥” (ऋक् १।१२।८) १।१३३५) और रात्रिकी बड़ी सहोदर (ऋक् १।१२४८) ___ जैसी हो आज वैसी ही कल भी वह अनवद्य हैं। रात्रि और उषा दोनों कई जगह साथ साथ हैं। प्रतिदिन उषा वरुण एवं सूर्यको अविस्थितिके भगिनी कही गयौहैं-"नक्तोषसा, उषसानता" ! यह सूर्य को स्थानसे ३० योजन आगे रहती हैं। एक एक उषा प्रणयिनी हैं। उषा मनुष्योंका आयु दिन-दिन घटा उदयकाल पर ही गमनागमनरूप कर्म निर्वाह किया प्रकाशित होती हैं। करती हैं।* वेदसहितामें जिस भावसे इनको बताया है, उसका इन्द्रने हो उषाको उत्पन्न किया है-“यः सूर्य व उदाहरण नीचे दिया जाता है- उषस' जजान ।” ( ऋक् २।१२।७) फिर इन्द्रहो उषाको विनष्ट "6षा सच्छन्ती समिधाने अन्ना उद्यन्त, सूर्य उम्यिा ज्योतिरोत्। । भी करते हैं (ऋक् ४.३०८११)। श्रमिनती दै व्यानि व्रतानि प्रमिणती मनुष्या युगानि । निघण्टु में उषाके यह नाम लिखे हैं-विभावरी, ईषुषाणामुपमाशश्वतौनामयतीनां प्रथमोषा व्यद्यौत्र सूनरी, भास्वती, प्रोदती, चित्रामया, अर्जुनी, वाजिनी, एषा दिवो दुहिता प्रत्यदर्शि ज्योतिर्वसाना ससना पुरस्तात् । वाजिनीवती, सुम्नावरी, अहना, द्योतना, व त्या. ऋतस्य पन्थामन्वे ति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति ॥३ उपो अदर्शिश ध्यु वो न वच्चो नोधा इवाविरकृत प्रियाणि । अरुषी, सूत्रता, सुनृतावता, सूनृतावरी। (नि एटु ११८) अद्मसन्न ससतो वोधयन्ती शश्वत्तमागात् पुनरयुषीणाम् ॥४ पूर्व कालमें ग्रीक और रोमक उषा देवीको पूजा पूर्व अर्द्ध रसजो अभास्य गवां जनिवऽक्त प्रकेतुम्। . करते थे। ग्रीक उषादेवीको एओस (Eos) और व्यु प्रथमै वितरं वरीय भोभा पृशन्ती पिबीरूपस्था ॥५” रोमक अरोरा (Aurora) कहते थे। वह हाइपेरियन (ऋक् १०, १२४ सू०) एव थेयरको कन्या, हिलियन तथा सिलिसको भगिनी अग्निके समिध् हारा जल उठनेसे उषा अन्ध- और टिटान अस्त्रियसको पत्नी थौं। होमरने उषाको कारकी आड़ में सूर्योदयको तरह बहुल ज्योति प्रकाश दिवादेवी लिखा है। करती हैं। वह देवव्रतको अविघ्नकारिणी और ___२ प्रत्यूष, सवेरा। ३ वाण राजाको कन्या और मनुष्यको आयुःक्षयकारिणी हैं। अतीत तथा नित्य अनिरुहकी पत्नी। अनिरुद्ध शब्दमें विस्त त विवरण देखो। उषा सकलके समान और आगामो उषा सकलके उषाकल (स० पु०) उषायां कल शब्दो यस्य, बहुव्री। प्रथम रहती हैं। उषाने द्यु तिलाभ किया है। उषा कुक्कुट, मुर्गी। स्वर्गको दुहिता हैं। ज्योति:हारा घिर पूर्व दिक्में क्रमसे वह देख पड़ती हैं। मानो सूर्यका अभिप्राय • सायणाचार्यके मतसे सर्य प्रत्यह ५०५६ योजन अर्थात् एक दण्डमें समझ कर ही वह उनके पथमें घूमती हैं। वह कभी ७६ योजन चलते हैं । ३० योजन भागे चलते स थैरे साढ़े बाईस पल दिशावोंकी हिंसा नहीं करतीं। सूर्यको तरह वह पहले उषाका उदय होता है।
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४०१
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