उपासक-उपासना ३५७ दरवेश, सांई, आउल, साध्विनी, सहजी, खुशीविश्वासी, उपासन (स• लो०) उपास्यन्ते क्षिप्यते शरा अत्र, गौरवादी, बलरामो, इजरती, गोबराई, पागलनाथी, उप-प्रस-ल्यु। १ वाणके निक्षेपका अभ्यास, तीर चला- तिलकदासी, दर्प नारायणी, अतिबड़ी, राधावल्लभी, नेका महावरा। २ आघात करण, मारकाट। भावे लुट। सखीभावक, चरणदासी, हरिश्चन्द्रो, सध्रपन्थी, माधवी, ३ चिन्ता, फिक्र। ४ सेवा, खिदमत। ५ उपकार, चुहड़पन्थी, कूड़ापन्थी, बैरागी, नागा, विन्दुधारी, भलाई कविराजी, सत्कुली, अनन्तकुली, योगिवैष्णव, गिरि- उपासना (सं० स्त्री०) उप-पास-युच् स्त्रियां टाप् । वैष्णव, गुरुवासी वैष्णव, नाना जातीय, उत्कलवैष्णव, १ पूजा, परस्तिथ । २ परिचर्या, खिदमत, टहल। बिरकत, निरङ्ग, अभ्यागत, कालिन्दी, चामार, हरि- व्यासो, रामप्रसादी, बड़गल, तिङ्गल,लश्करी, चतुर्भुजी, "न्यायचर्चे यमीशस्व मननव्यपदेशभाक् । फलहरी, वाणशायी, पञ्चधुनी, मौनव्रती, दुराधारी, उपासनैव क्रियते अवशान्तरागता ॥” ( कुसुमाञ्जलिवृत्ति १।) ठाडेश्वरी, वैष्णवदण्डी, वैष्णवब्रह्मचारी,वैष्णवपरमहंस, ___ अधिकारोंके भेदसे उपासना दो प्रकारको होती मार्गी, पलटदासी, आपापन्थी, सत्नामी, दरियादासी, है। दुबैल अधिकारीको सगुण ब्रह्म अर्थात् मूर्ति बुनियाददासी, निरञ्जनी, मानभाव, किशोरीभजनी, प्रभृति और प्रबल अधिकारीको निर्गुण परमात्माको अनहड़पन्यो, वीजमार्गी, महापुरुषोय, रातभिखारी, उपासना करना चाहिये। कर्मनिष्ठ व्यक्ति ब्रह्मनिष्ठाके ओयारेकरी, टहलिया और कुजीगायेन। । उपयुक्त नहीं होता। शाक्तसम्प्रदाय-करारी, भैरव, भैरवी चोलियापन्थी, "अनन्यचित्तता ब्रह्मनिष्ठाऽसौ कर्मठे कथम् । पखाचारी, वीराचारी, शीतलापण्डित, योगिनी, शाङ्को। कर्नत्यागी ततो ब्रह्मनिष्ठामर्हति नैतरः ॥” ( अधिकरणनाला श४ ) शैवसम्प्रदाय-दण्डी, सन्यासी, नागा, घरबारी समस्त विषय छोड़ एकाग्र भावसे परब्रह्म में चित्त- दण्डी, घरबारीसन्यासी, त्यागसन्यासी, अलखिया, वृत्तिका समाधान करना ब्रह्मनिष्ठा कहलाता है ! वह दङ्गलो, अघोरपन्थो, ऊर्ध्वबाहु, आकाशमुखी, नखी, कर्मपरायण व्यक्ति से बन नहीं सकता। अतएव जो ठाड़ेश्वरी, अर्ध्वमुखी, पञ्चधुनी, मौनव्रती, जलशय्यो, कर्मानुष्ठान छोड़ता, वही ब्रह्मनिष्ठाको जोड़ता है; जलधारातपस्वी, कड़ालिङ्गो, फसरो, दूधाधारी, अलोना, अन्य व्यक्ति ब्रह्मनिष्ठ नहीं बन सकता। इसके अधि. अोघड़, गूदड़, सूखड़, रूखड़, भुक्खड़, कुक्कड़, उक्खड़, कारियोंका मुक्ति लाभ ही लक्ष्य है। तत्त्वज्ञान द्वारा अवधूतानी, ठीकरनाथ, खभङ्गी, आतुरसन्यासी, ब्रह्म- परमात्माके साक्षात् करने के सिवा मुक्तिलाभका दूसरा 1, कनफटयोगी, अघोरपन्थीयोगी, योगिनी, कोई उपाय नहीं। फिर योगके विना तत्त्व ज्ञान संयोगी, महेन्द्री, शारङ्गीहार, डुरिहार भट इरि, कैसे आ सकता है! वेदमें परमात्म-साक्षात् करने के कानिपायोगी, दशनामीभाट, चन्द्रभाट, लिङ्गायत तोन उपाय कहे हैं। यथा,-१ श्रवण, २ मनन और और तीरशैव वा जङ्गम। ३ निदिध्यासन। श्रुतिमें लिखा है- सिवा इनके नरेशपन्यो, पाङ्गल, केउरदास, फकीर, "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोत मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।" कुम्भपटिया, खोजा और ब्राह्म प्रभृति कतिपय आधु. परमात्म-साक्षात् करने के लिये श्रवण, मनन और निक धर्म सम्प्रदाय भी विद्यमान हैं। प्रत्येक शब्दमें उन निदिध्यासन करना चाहिये। उसीसे परमात्माका उनका विवरण देखो। साक्षात् कार हो सकता है। उपासङ्ग (सं० पु०) उपासज्यन्त्ये शरा अन, उप प्रा- ___ "श्रवण' नाम घडविध लिअरशेषवेदान्तानाम हतीये ब्रह्मणि तात्प- सन्ज-घञ्। १ वाणाधार, तरकश। “समन्तात् कल यविधारणम् । लिङ्गानि तु उपक्रमोपरीहाराभ्यासापूर्व ताफलार्थ वादोप- धौताया उपासङ्ग हिरण्मये।" ( भारत विराट् ४२ अ०) भावे घञ्। पत्याखयानि।" २ श्रासक्ति, लगाव। अवा-उपक्रम एवं उपसंहार, अभ्यास, Vol III. 90
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