उपपुराण ३२६ चतुर्थ शिवधर्माख्य' साचान्नन्दीशभाषितम् । अब्दालतगुणक्षोभान्महतस्विकृतोऽहमः । टुर्वाससोक्तमार्य नारदीयमतः परम् ।। भूतसूक्ष्म न्द्रियार्थाना सम्भवः सर्ग उच्यते ॥ कापिलं वामनव तथै वोशनसरितम । पुरुषानुग्टहीतानामतेषां वासनामयः । ब्रह्माण्ड वारुणञ्च व कालिकाहयमेव च ! विसगोऽयं समाहारो वीजाहीज' चराचरम् ॥, माहेश्वरं तथा शाम्वं सौरं सर्वार्थ सञ्चयम् । चिभूतानि भूतानां चराद्यानचराणि च । पराशरोक्त मारीचं तथैव भार्गवाद्वयम् ॥"(कूमै १७० १७.२०लो०)। कृता खे न नृणां तव कामाचोदनयापि वा। १ सनत्कुमारोक्त श्राद्य, २ नारसिंह, ३ कुमा- रक्षाचा तावतारहा विश्वस्वानु युगे युगे। तिङ मयं र्षि देवेषु हन्यन्ते वैस्वयादिषः । रोक्त स्कन्द, ४ नन्दीशप्रोक्त शिवधर्म, ५ दुर्वासाः, ६ नार- मन्वन्तरं मनुदै वा मनुपुवा: सुरेश्वराः। दीय, ७ कापिल, ८ वामन, ८ उशनाः, १० ब्रह्माण्ड, ऋषयोऽ'शावताराश हरेः षड्विधमुचाते॥ ११ वारुण, १२ कालिका, १३ माहेश्वर, १४ शाम्ब, राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां शस्त्र कालिकोऽन्वयः । १५ सर्वार्थ सञ्चायक सौर, १६ पराशरोक्त, १७ मारीच वंशानुचरितं तेषां वृत्त वंशधराय ये। और १८ भार्गव। न मित्तिक: प्राकृतिको नित्य प्रात्यन्तिको लयः । सचराचर भागवत दो प्रकारका मिलता है-एक संस्थे ति कविभिः प्रोक्तचतुर्धास्त्र स्वभावतः ॥ विष्णु-भागवत और एक देवो-भागवत । हेमाद्रि तुर्वी जोऽस्त्र सादरविद्याकर्मकारकः । य चानुशायिनं प्राहुरव्याकृतमुतापरे । प्रभृति शास्त्रविदगणके मतसे प्रकाशित है- व्यतिरेकान्वयो यस्य जायत्स्वप्नसुषुप्तिषु । "इदं यत् कालिकाख्यन्तु मूलं भागवतन्तु तत।" मायानयेषु तवम जीवहचिष्वपाश्रयः ॥ कालिका उपपुराणका मूल पुराण भागवत है। पदार्थेषु यथा ट्रव्यं सन्मावरूपनाममु । प्रधानतः कालिकापुराणमें देवीका माहात्मा ही वर्णित वीजादिपञ्चतान्तामु झवस्थाम युतायुतन ।” (१२ स्क०७०९-२० श्लो०) है। इसलिये देवी-भागवतको हो मूलपुराण वा महा- पुराण बताते हैं। १ सगे, २ विसर्ग, ३ वृत्ति, ४ रक्षा, ५ अन्तर, (देवीभागवतपर नौल कगठ-कृत टौकोपक्रमणिका). ६ अंश, ७ वशानुचरित, ८ संस्था, ..हेतु और कोई कोई विष्णु-भागवतको हो महापुराण कहते १० अप्राश्रय लक्षणाक्रान्त पुराण होता है। अधिक हैं। असलमें इस विषय पर बहुत कुछ सन्देइ और अल्प व्यवस्थाके अनुसार कोई कोई पुराणविद, उठता है-कौन उपपुराण और कौन महापुराण है। पञ्च लक्षणयुक्त ग्रन्यको भी पुराण कहते हैं। सन्देह की बात भी है। क्योंकि दोनों ही भागवत म सर्ग-प्रक्वतिक गुणत्रयसे महान्, उससे त्रिगुणा- हादश स्कन्धमें विभक्त और अष्टादश सहस्र श्लोका त्मक अहङ्कार और अहङ्कारसे सूक्ष्म इन्द्रियसमूह, त्मक हैं। पुराणशब्दमें विस्त त विवरण देखो। स्थ ल पदार्थसकल एवं तत्तत् अधिष्ठात्री देवताको उपरोक्त पुराणों को छोड़ धर्ममुराण, वृहद्धर्म पुराण, उत्पत्ति होनेका माल सर्ग है। ____स्य विरुर्ग-जीवके पूर्व आर्म-सम्बन्धीय वासनाजात वृहन्नन्दिकेश्वर-पुराण प्रभृति दूसरे भी कई उप- तथा ईखरानुग्रहीत सकल वीजले बीजोत्पत्तिको तरह पुराण हैं। समाहार-रूप चराचरको उत्पत्ति होने को विसर्ग वा __पुराण और उपपुराणका लक्षण श्रीमद्भागवत में इस | अवान्तर सृष्टि कहते हैं। प्रकार लिखा है- ____श्य वृत्ति-इस संसार में चराचर प्राणिसमूहको वासनाके "सर्गोऽस्वाथ विमर्गच इत्तिरचान्तराणि च । वंशो वंशानुचरितं सस्था हेतुरपाययः ॥ हेतु एवं मनुष्यादिके स्वभाव, काम वा विधिके अर्थ. दशभिलक्षणैर्युक्तं पुराणं तहिदो विदुः । किया जानेवाला जीवनीपाय वृत्ति वा स्थिति है। केचित् पञ्चविध ब्रह्मन् महदल्यव्यवस्थया ॥ ४र्थ रक्षा-युग-युगमें वेदके विदेषी दैत्योंसे देव,. Vol III. 83 कौन जयपर बापुराण की
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