उपनिषत् ३२४ विविधस्य सदर्थ स्य निशब्दोऽपि विशेषणम् । एवं सूत्र भागमें वर्णित है। ऐसे धर्माचरणको कर्मः उपनीय तमात्मान' ब्रह्मकपादयं यतः॥ काण्ड कहते हैं। निहन्त्यविद्या तजञ्च तस्मादुपनिषद्भवेत् । ___ दूसरे जिस धर्मके अनुसार हम नित्य शान्ति, प्रवृत्तिहनिःशेषांस्तम्मलोच्छेदकत्वतः ॥ अक्षय मोक्षपद पाते, जिस धर्मोपदेशक गुणसे असार यतोऽवसादयविद्या तस्मादुपनिषद्भवेत् । संसारके मायामोहादि सहज ही छूट जाते, जिस यथोन विद्या हेतुत्वादृग्रन्थोऽपि तदभेदतः ॥ धर्मके अनुसरणसे परमात्मामें जीवात्माका लय लाते भवेट्पनिषदामा सलिलं जीवन यथा।" और जिस धर्मके उद्यापनसे जन्म-जरा-मरण रूप उपनिषद् शब्द एकमात्र ब्रह्मविद्यारूप अर्थ प्रकाश संसार में फिर नहीं पाते, उसका नाम नित्ति-धर्म करता है। इसके अवयव अर्थको विद्यामें ही संगति | बताते हैं। उपनिषद् नामक वेदके शिरोभागमें यही होती है। उप उपसर्गका अर्थ सामीप्य है। तारत निवृत्ति-धर्म वर्णित है। उपनिषदके अनुयायो आच- म्यको विश्वान्ति के स्वीय आत्मापर ईक्षण हेतु यह प्रत्य रणको जानकाण्ड कहते हैं। इसका अपर नाम गात्मा में पर्यवसित है। फिर यह नि-शब्द एवं सद ज्ञानयोग भी है। धातुके नाश, गमन और अवसादन विविध अर्थका “यदे व विद्यया करोति अयोपनिषदा तदैव वीर्यवत्तरम्।" विशेषण है। जीवात्मरूप चैतन्यको परमात्म-चैतन्यके __(छान्दोग्योपनिषद) निकट पहुंचा ब्रह्मके साथ उसका अद्दयत्व भाव- 'उपनिषदा योगेन युक्तश्चेत्यर्थः। ( शादरभाष्य ) निष्यादन एव अविद्या तथा अविद्याका कार्य नाश विद्यारण्य स्वामीने बनाये 'सर्वोपनिषदर्थानुभूति. करनेसे इसे उपनिषद् कहते हैं। अथवा उपनिषद प्रकाश' नामक ग्रन्थमें इन्हें प्रथान उपनिषद माना विद्याको प्रवृत्तिके हेतु समस्त नि:शेषको विनाश करनेसे इसका नाम उपनिषद पड़ा है। समस्त प्रभेद १। ऐतरेय उपनिषत् (ऋग्वेदीय)। विद्याका हेतु होनेसे जलादि जैसे जीवन कहाता, वैसे . २। तैत्तिरीय उपनिषत् (कष्णयजुर्वेदीय)। ही उपचार वश यह ग्रन्थ भी उपनिषद नाम पाता है। ३। छान्दोग्य उपनिषत् (सामवेदीय )। तैत्तिरीय उपनिषद के भाष्यमें शङ्कराचार्यने भी ४। मुण्डक उपनिषत् । (अथर्ववेदीय )। लिखा है-'परं ये योऽस्या निषसम्।' उपनिषदमें मोक्षके ५। प्रत्र उपनिषत् । (अथर्ववेदीय )। लाभका परम मङ्गल निहित है। कौषितको उपनिषत् । (ऋग्वेदीय)। ७। मैवायणीय उपनिषत् । (अक्लयजुव्वेदीय), वस्तुतः उपनिषदको सनातन भारतीय धर्मका ८१ कठवल्ली उपनिषत्। (कृष्णयजुव्वदीय)। मूलस्वरूप कहने से भी अत्युक्ति नहीं होती। सनातन श्वेताश्वतर उपनिषत्। (कृष्णयजुव्यदीय)। धर्मके आजतक अक्षुण रहनेका मूल कारण उपनिषद १०। वहदारण्यक उपनिषत् । (शुक्लयजुवेंदीय)। ही है। उपनिषदमें हमारे धर्मका मूलतत्त्व रक्षित है। ११ तलवकार उपनिषत् । (सामवेदीय)। उपनिषद के पाठसे ही हमने जान लिया, कि वर्तमान १२। नृसि'होचरतापनीय उपनिषत्। (अथर्ववेदीय)। कालकी अपेक्षा पूर्वतन ऋषिगणने ज्ञानके बल कितना मुक्तिकोनिषदमें १०८ उपनिषदका नाम लिखा है। यथा- निगूढ़ उच्च तत्त्व याविष्कार किया था। १ ईश, २ कैन, ३ कठ, ४ प्रश्न, ५ मुण्ड, ६ माण्डूक्य, ७ तैत्तिरीय, .. हमारा सनातन धर्म प्रधानतः दो भागों में विभक्त ८ ऐतरेय, ६ छान्दोग्य, १० बृहदारण्यक, ११ ब्रह्म, १२ कैवला, है-प्रवृत्ति धर्म और निवृत्ति धर्म। जो धर्मानुयायी १३ जावाल, १४ श्वेताश्वतर, १५ हंस, १६ भारुणि,१७ गर्भ, १८ नारायण, पुण्यकर्मादि करने से हम इहलोक एवं परलोकमें परम १८ परमहंस, २० अमृतविन्दु, २१ अमृतनाद, २२ अथर्वशिरः, २३ अथर्व- शिचा, २४ मैबायको, २५ कौषितको, २६ वृहज्बावाल, २७ वापनी, वर्गमुख तथा अशेष पुण्य पा सकते है, उसे प्रवृत्ति-धर्म २८ कालाग्निरुद्र, २८ मैव थी, ३० सुवाल, ३१ चरिक, ३२ मन्त्रिक, कहते हैं। यह धर्म वेदके 'हिता, ब्राह्मण, पारख्यक
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/३२५
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