उन्माद २८१ कभी बुरी राह चलनेको जी चाहता है। मेधाको पापके परिणाम, एकाको शून्य ग्रहके वास, चतुष्यथपर, शक्ति घट जाती है। मन डावांडोल रहता अथवा सन्ध्याकाल अथवा अशुचि अवस्थामें पर्वसन्धिके मथुन, वस्तुका अनुभव और मोह लगता है। उन्मत्तता रजखला स्त्रोके अभिगमन, अध्ययन वलि मङ्गल- होनेसे मस्तिष्क बिगड़ता अथवा मस्तिष्क को। होमादि कार्य के अवैध आचरण, तुमुल युद्ध, देश कुल क्रियाका क्रमश: अवसान होने लगता है। मनकी। वा नगरादिके विनाश, स्त्रीके सन्तानोत्पादन, नाना- गति, इच्छा एवं प्रकृति उलट पलट जाती है। इस प्रकारके भूत और अशुचि स्पर्श, वमन तथा रक्तस्रावके उन्माद में प्रधानतः दो प्रकार होते हैं। कभी रोगी अशोच, अशुचि रहते चेत्य एवं देवालय वा नगर एवं स्थिरभाव पकड़ता है और कभी भोषण मूर्ति बना जनपद में रात्रिकालको चतुष्पय अथवा वायुमुख वा अनर्थ साधन करता है। उत्कण्ठा रोगमें शोक श्मशानके अभिमुख गमन, मांस मधु तिल गुड मद्य अथवा दुःख, मनका भाव एवं मस्तिष्कका कर्म प्रभृतिक सेवन को उच्छिष्टावस्था, विज गुरु देवता रागो बढ़ता है। कभी कभी एक विषयको चिन्तामें मन आदिको अवमानना, धर्मालापके व्यतिक्रम और पाप- अस्थिर होनेसे यह रोग लग जाता है। ऐसी अव कर्म अथवा अप्रशस्त काल में किसो मङ्गलकर कार्य के स्थाको ऐकान्तिक उन्माद कहते हैं। बुद्धि के विपर्ययमें आरम्भसे होती है। मानसिकक्रिया घट जाती है और मनपर अधिक दुबै भारतीय वैद्य कहते हैं-मोह छाने, मनमें उद्देग, लता आ जानसे मानसिकशक्ति अकर्मण्य हो जाती है। कर्णमें शब्द और हृदयमें अतिशय उत्साह समान, देह रोगका कोई अनुमान नहों लगा सकता। निबुद्धिता दुबलाने, अनपर अरुचि आने, स्वप्न में कलुषित द्रव्य वा जड़ताका रोग लगनेसे एककाल हो बुद्धिको शक्ति खाने और वायु द्वारा उन्मयन एवं भ्रमपान आदि लुप्त हो जाती है। किसी किसी स्थल में अति सामान्च लक्षण देखानसे उन्मादरोग शीघ्र आरोग्य होता है।* बुद्धिका परिचय मिलता है। यह रोग प्रायः शैशव चिकित्सा-देवता अथवा ग्रहादिद्वारा उन्माद उठने- वा बालककालमें होता है। जन्मकालीन अथवा | पर शान्ति और पौष्टिक आभिचारिक प्रभृति क्रियास किसी विशेष कारणसे बुद्धिको वृत्तिका पथ रुकनसे दब जाता है। साधारण औषधसे कोई फल नहों जड़ता बढ़ती है। निकलता। फिर भी यथार्थ शारीरिक और मानसिक महर्षि चरकका कथन है-“यस्तु दोषानिमित्तेभ्यो उन्मा. कारण लगनेपर भिन्न भिन्न उपायसे चिकित्सा चलाना देभ्यः समुत्थानपूर्वरूपलिङविशेषसमन्विती भवत्य न्मादस्तमागन्तुमाचचते।" चाहिये। अर्थात् जो उन्माद पूर्वोक्त दोषनिमित्तक उन्मादसे "उन्माद वातिके पूर्व नेहपानं विरेचनम् । विशेष निदान, पूर्वरूप एवं रूपविशेष रखता है, पित्त कफ जे वान्तिः पयोवस्ताहिकक्रमः ॥" (चक्रपापि) - वातिक उन्माद में स्नेहपान एवं विरेचन और उसका नाम आगन्तुक उन्माद है। किसीके मतमें पूर्व जन्मके अशुभ कर्मसे आगन्तुक उन्माद उठता है। इसमें पित्तज एवं कफज में वमन कराने बाद स्नेहपान, देवताके समान बलवीर्यादि देख पड़ते है। प्राचीन वस्ति शोधन तथा विरेचनके क्रमसे चिकित्सा वैद्योंकि विचारसे देवतादिके डर करनेसे उपजनेवाला होती है। रोग ही आगन्तुक उन्माद है। चरकने स्पष्ट कहा प्राचीन वैद्यगणके मतसे अपस्मार रोगको तरह उन्मादको चिकित्सा करनेसे भी निर्वाह हो जाता है-देवतागणको दृष्टि, गुरु वृद्ध सिद्ध या ऋषिगणके अभिशाप, पिलोकको अवज्ञा, गन्धवेगणके स्पर्श, “मोहोहे गौ खनः यौवे गावापामपकर्षयम् ॥ शरीरमें यक्ष तथा राक्षस प्रभृतिके प्रवेश पौर पिशाच- अत्यु तसाहोऽरुचिचा खप्ने कलुषभोजनम् । गणक पारोहणसे उन्माद उपजता है। जाता है। वायुनोन्मथनञ्चापि धमश्च क्रमतस्तथा। पूर्वोक्त देवतादिके द्वारा उन्मादकी उर यस्य स्यादचिरेणैवमुन्माद सोऽधिगच्छति ॥" (सञ्जत)
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२९२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।