उदर २४३ शोथ, जलोदरी और उससे अामान हो सकता है। यक्वत्को सञ्चित पीड़ासे उदर पक जानेपर ये 'पाकस्थ लोके विधि रोगमें भी ऐसा लक्षण रहनेकी सकल लक्षण झलक सकते हैं। सम्भावना है। किन्तु इस रोगका प्रधान उपसर्ग __ चरकमें श्लेष्मजनित उदररोगका यह लक्षण लिखा- वमन ही है। रोगीको शरीर भारी मालूम पड़ता है। भोजनसे अरुचि किसी व्यक्तिको यकृतको विशुष्कताका रोग लगा रहती है। पाक और अङ्गमर्द होता है। देहका था। प्रथम अग्निमान्य हश्रा, अपराहूको अल्प-अल्प अधिक ध्यान नहीं पड़ता। हस्त, पाद और मुख सूज ज्वरका वेग बढा, उसके बाद पादपर शोथ चढ़ा और जाता है। वमन करने को इच्छा बनी रहती है। सर्वदा सबसे पीछे वृषण एवं हस्त फला, तथा पेट जलसे निद्रावल्य, कास और खास चलता है। नख, चक्षु, भर गया। इसी अवस्था में किसी प्रसिद्ध कविराजने | मुख, मलमूत्र और त्वक्का वर्ण खेत पड़ जाता है। उसे देख वातोदरका रोग बताया था। किन्तु रोगीके पेट पर शुक्लवर्ण रेखा और शिरा झलकती है। उदर पेटसे अन्य न पन्द्रह सेर जल निकाला गया। किसी गुरु, स्तिमित, स्थिर और कठिन हो जाता है। रोगीके प्रस्तावकी पीड़ासे हस्त, पाद और मुख पर सुश्रुतने भी कहा है- शोथ चढ़ा था। पीछे एक दिन वंशी बजाते बजाते “यच्छौतलं शक्लशिरावनई लक्ष्य स्थिरं वक्तनखाननस्य । उसके वायुशूल (Flatulent colic) होने लगा। किन्तु सिन्ध महच्छोफयुतं ससाद कफोदरं तच्च चिराभिइद्धि ॥" जनक प्रथितनामा बैद्यने रोगको वातोदर ठहराया कफोदरमें पेट शीतल, शुक्रवण शिरासे व्यात, था। अतएव जो स्वदेशीय एवं विदेशीय उभय प्रकार- चिक्कण और स्थिर हो जाता है। नख और मुख को चिकित्साके शास्त्रका अनुशीलन करते, ऐसे शुक्ल वर्ण रहते हैं। पेट स्निग्ध और महाशोथयुक्त स्थलपर वे बड़े गड़बड़में पड़ते हैं। बनता है। देहमें अबसन्नता आ जाती है। यह पित्तोदरका लक्षण भी ठीक नहीं बैठता। चरक- उदररोग अनेक दिनों में बढ़ता है। किन्तु नाना प्रकार- संहितामें लिखा-पित्तोदर रोगमें रोगीको दाह, ज्वर, के मूत्ररोग और हृदरोगमें भी उक्त लक्षण लंग सकता तृष्णा. मूळ, पतीसार और चमका वेग दहलता है। है। विदोष-जनित उदररोगमें वातोदर, पित्तोदर और मुखमें कटु आस्वाद आ जाता है। नख, चक्षु, मुख, कफोदर तीनो उदररोगका लक्षण रहता है। त्वक् एवं' मलमूत्रका वण हरा और पीला देख पड़ता प्लीहोदरके सम्बन्धमें कहा है- है। पेट पर नौल, पोत, हरित एवं ताम्रवण रेखा "असितस्यातिस'चोभादृशानयानाभिचेष्टितः । तथा शिरा झलकती है। फिर दाह एवं तापके उदारसे अतिव्यवायभाराध्ववमनव्याधिकर्षणैः ।। धम निकलने पर पेट उष्ण रहता, धर्म तथा क्लेद बानपार्श्व स्थित: प्लीहाच्य तिः स्थानात् प्रवधं ते । छोड़ता, दबानेसे कोमल लगता और शीघ्र पकता है। शोणितं वा रसादिभ्यो विहन्त विवर्ध वेत्। . सुश्रुत नहीं कहता-पित्तोदरमें पटका कौन इति तस्य प्लीहा कठिनोऽष्ठिलेवादी वर्धमान कच्छपस स्थान उपलभ्यते । स्थान पकता है। उसमें संक्षेपसे यह लक्षण मिलता- स चौपेक्षित: क्रमेण कुचि' जठरमग्राधिष्ठानच परिक्षिपन्न दरमभिनिवर्त. पित्तोदर होनेपर मुखशोष, तृष्णा, ज्वर एवं दाहका यति ।" (चरक) वेग बढ़ता है। शरीर पोत पड़ जाता है। समस्त । भोजनके बाद अङ्गादि अधिक चलाने, यानपर शिरा, चक्षु, नख, मुख और मलमूत्रका वर्ण भी पीत जाने, यानपर शरीर अधिक हिलाने, अतिरिक्त स्त्री हो रहता है। यह रोग अल्प अल्प बहुत दिनोमें संसर्ग लगाने, क्षमतासे अधिक भार उठाने, पथपर बढ़ता है। अधिक श्रम पाने और वमन तथा व्याधि द्वारा शरीर । “यच्छीषटकाचरदायुक्त' पीतं शिरा यव भवन्ति पीताः। .. अधिक धिनानेसे पञ्चरको वामपाखंस्थित सौहा पौताधिविस्ममूवनखाननस्य पित्तोदरं तव चिरामिति ॥" खस्थानको छोड़ बढ़ती किंवा रसादि द्वारा रक
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२४४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।