उदयपुर वा मेवाढ़ २३० कारसे 'महामहोपाध्याय'का उपाधि मिला है। महा उत्पन्न द्रव्य-उदयपुर राज्यमें जुवार, बाजरा, धान, राणा सज्जनसिंहके आज्ञानुसार कविराजजीने "वीर यव, चना, गेहूं, जख, अफीम, कपास, तम्बाकू प्रभृति विनोद” नामक राजस्थानका एक बहुत बड़ा इतिहास | द्रव्य उपजते हैं। रचा है। दिल्ली-दरबारमें महाराणा फतेसिंहजीको २ उदयपुरके राज्यको राजधानी। यह प्रक्षा. भारतीय हिन्दू राजन्यवर्गमें सर्व प्रधान सम्मान मिला | २४° ३५ १८” उ० और ट्राधि० ७३° ४३ २३पू० पर था। मेवाड़ देखो। अवस्थित है। अकबर बादशाहके चित्तौर पर चढ़नेसे उदयपुरके महाराणा अंगरेज सरकारसे १८ उदयसिहने यहां आकर न्तन नगर बनवाया था। तोपोंकी सलामी पाते हैं। महाराणाके अधीन उन्होंके नामानुसार लोग इसे उदयपुर कहने लगे। १३३८ गोलन्दाज, ६२४० सवार और १३,१०० यह नगर पर्वतपर प्रतिष्ठित और वनराजी द्वारा पैदल रहते हैं। परिवेष्टित है। सम्मख एक विस्तीर्ण हुद.बह रहा उदयपुरके महाराणाका प्रासाद है। प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त सुन्दर और परम मनोरम | स्तम्भ बना है। महाराणा अमरसिंहका स्तम्भ सर्वा- है! महाराणाका प्रासाद नानावण के प्रस्तरोंसे निर्मित, पेक्षा वृहत् है। इदतोरसे कुछ ऊर्ध्व भागपर अवस्थित और पर्वतके उदयपुरके दक्षिण पाखेपर एकलिङ्गगढ़ है। उसके मध्य प्रतिष्ठित है। दरसे इसकी शोभा दर्शकका मन दक्षिण गोवर्धनविलास विद्यमान है। मोह लेती है। भवन चारो दिक ५० फोट उच्च इस नगरसे छः कोष उत्तर सङ्कीर्ण पर्वतके मध्य प्राचीर हारा वेष्टित है। राजभवनके सिवा युव एकलिङ्ग महादेवका मन्दिर बना है। एकलिङ्ग देखो। राजका गृह, सरदारका भवन और जगन्नाथ देवका ३ मालव-राज्य के अन्तर्गत पधरीसे ५ कोस दक्षिण- मन्दिर भी दर्शनीय है। पचोला इदके बीचों बीच पश्चिम अवस्थित एक क्षुद्र नगर। वर्तमान उदयपुर यज्ञमन्दिर और जनवास नामक दो जलग्रासाद हैं। प्राचीन नगरके भग्नावशेषपर बना है। स्थानीय ई के १७३ शताब्दमें जगत्सिंहजीने इन्हें बनवाया था। चंदोलोहार अति पुरातन है। नगरको दक्षिण दिशामें नगरके निकट ही आहर नामक एक ग्राम है। अनेक सतीस्तम्भ खड़े हैं। मध्यस्थल में तीन प्राचीन उसमें स्थान-स्थानपर अट्टालिकादिका भग्नावशेष मन्दिर हैं। उनमें बड़ा मन्दिर अतिप्राचीन बताया देखनेसे समझ पड़ता-यहां पहले कोई शहर था। जाता है। संवत् १११६ में राजा उदयाजित्ने उसे आहरमें महासतौ-स्तम्भ खड़ा है। जिन प्रधान प्रधान बनवाया था। लोग कहते-दिल्लीके बादशाह सामन्तगणके मरनेसे उनकी पत्नीने भी चितापर चढ़ औरङ्गजेब दक्षिणापथको जीत इस स्थानपर आये थे। अपना प्राण कुछ न गिना, उन्हीं के स्मरणार्थ महासती. उन्होंने इस मन्दिरका चमत्कार और सौन्दर्य देख Vol III. 60
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