१८८ उतक यह नगर मन्द्राज प्रान्तका प्रधान स्वास्थाप्रद स्थान कहा-पोष्यराजकी धर्मपत्नीके कुण्डल मैं पहनना' है। मेत्तूपलायम्का रेलवे टेशन निकट पड़ता है।। चाहती है। १८१८ ई० में मन्द्राजके दो मुल्की हाकिमोंने | उतङ्कने पौष्यराजके निकट जाकर कहा-'महा- तम्बाकूक महसूल चोरोंकोखदेरते खदेरते उतकामन्द | राज! गुरुदक्षिणा देनेके लिये आपसे कुण्डलद्दय को उपत्यका ढढी थी।. १८२१ ईमें पहले स्थानीय मांगने आया हूं। कृपाकर दे दीजिये।' राजा कले करने यहां एक घर बनाया, कुछ दिन पोछे नगर बोले-'कुण्डल में देता है। किन्तु आप अति साव- ही निकल पाया। इसको चारो ओर अंचे पर्वत धानतासे ले जाइयेगा। क्योंकि इस कुण्डलहयपर हैं। पास ही डेढ़ मोल लम्बी भौल खुदी है। दोदा नागराज तक्षकको दृष्टि सर्वदा रहती है।' बेटाकी चोटी समुद्रतलसे ८७६० फीट ऊंची है। . उतक कुण्डलद्वय लिये पाते थे। राहमें एक भोलको चारो ओर पक्की सड़क खिंची है। समस्थली उलङ्ग क्षपणक मिल गया। वह मध्य मध्य छिप पर रहनसे इस नमरने शिमले जैसे हिमालय के जाता था। ये कुण्डलद्दयको भूतलपर रख सान स्थान लोगोंकी दृष्टि से गिरा दिये हैं। हरी हरी घास तर्पणादिके लिये सरोवर पहुंचे। इसी बीच क्षपणक- हृदयको लहरा देती है। रूपी तक्षक उन्हें उठा नागलोकमें घुस गये। उतङ्कने १८६६ ई० में यहां मुनिसिपलिटी पड़ी थी। स्नानके अन्त में आकर कुण्डल न पाये थे। पौष्य- किन्तु मकान् पर्वत पर दूर-दूर बने हैं। जिलेके राजको ‘बात स्मरण आयो। ये बड़े कष्टपूर्वक कलकर, डेपुटी कलकर और सब जज यहां रहते इन्द्रलोकसे वज़ और उसके सहारे नागलोकसे जा हैं। गिर्जाघरी, होटलों, स्कलों, अस्पतालों और कुण्डल लाये । फिर कुण्डल गुरुपत्नीको उतङ्कने जाकर दुकानोंकी कोई कमी नहीं। १८५८ में पुस्तकालय | दिये थे। इन्होंने नागलोकमें जो देखा, गुरुसे कह और १८५८ ई में लारेन्स आश्रम खुला था। सुनाया। गुरु बोले-'वत्स ! तुमने वहां जो स्त्रीके उतङ्क-१ वेद नामक मुनिके शिष्य। ये जितेन्द्रिय, दो रूप देखे, वे परमात्मा और जीवात्मा हैं। हादश धर्मपरायण और बड़े गुरुभक्त थे। महाभारतमें कहा अवयवयुक्त चक्र संवत्सर, शुक्ल एवं कृष्णवर्ण सकल है-जनमेजय और पोष्य नामक राजद्दयने वेदको वस्तु दिवा तथा रात्रि, छः कुमार छहो ऋतु, पुरुष अपने उपाध्याय रूपसे वरण किया था। किसी समय पर्जन्य, अश्व अग्नि, पथिमध्य वृषभ नागराज, ऐरावत वेद सतहको गृहमें छोड़ और सकल भार सौंप और अश्वोपरि टपति इन्द्र हैं। तुमने इस स्थानसे प्रवासपर चल गये। एक दिन वेदपत्नीने उतङ्कको जाते समय वृषभका जो पुरोष खाया, वह अमृत है। बोला कहा था-'उतङ्क ! तुम्हारे गुरु घरमें नहीं। अमृतके प्रभावसे हो तुम नागलोक जा और यह मैं ऋतुमती इं। अब वह करो, जिसमें मेरी ऋतु कुण्डल ला सके। उतङ्क गुरुसे विदाय हो राजा निष्फल- न हो। गुरुपबोके समझाते भी इन्होंने वैसा जनमेजयके निकट गये थे। वहां तक्षक मारनेके कुकर्म न किया। गुरुने घरमें आकर उतङ्कके | लिये उनसे सयज्ञ कराया। (भारत पादि.) विशुद्ध चरित्रकी बात सुनी। उन्होंने इन्हें आशीर्वाद . २ गौतम मुनिके एक शिष्य। ये महर्षि थे। देकर कहा था-'तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। चले इनकी जीवनी भी पूर्वोक्त उतङ्ककी तरह है। जावो।' उतने गुरु दक्षिणा-देना चाही। गुरु इन्होंने भी गुरुपत्नी अहल्याके कहनेसे सौदास राज- बोल उठे-'वत्स उपमन्यु ! गुरुदक्षिणा देनेसे क्या पनौके कुण्डल लाकर गुरुदक्षिणा दी थी। ये घोरतर है! फिर भी यदि नितान्त तुम्हारी इच्छा हो, तपस्या में पासत और गुरुभक्ति-परायण रहे। गौतम तो अपनी गुरुपत्नीसे पूछो। वह जो मांगेगी, भी सकल शिष्यको अपेक्षा उतङ्कको हो अधिक चाहते वही चीज़ लाना पड़ेगी। गुरुपत्नीने उससे थे। यथा समय अपरापर शिष्यके पाठ पढ़ घर जाते
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/१८९
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