ईश्वरचन्द्र विद्यासागर भेजा, किन्तु गवरनमेण्टने रुपया देना न चाहा।। बङ्गालियों ने इस प्रस्तावका समर्थन किया था। जिनके उत्साहसे सकल विद्यालय खुले, वह हालिडे | किन्तु विद्यासागर उक्त प्रस्तावको रद करनेके लिये साहब भी उस समय कुछ उत्तर दे न सके। विशेष चेष्टित हुये। इन्होंने उस समय अनेका- विद्यासागरने अपने पाससे रुपये दे थोड़े दिन विद्या नेक कृतविद्योंका मत काटा और भारतवर्ष में संस्कृत लय चलाये थे। शिक्षा अधिक फैलानेके लिये गवरनमेण्टके निकट उसी समय विद्यासागरके एक बन्धु 'तत्त्वबोधिनी आवेदन किया। विद्यासागरका जय और सर- पत्रिका में ग्रन्याध्यक्ष थे। जो विषय सत्त्वबोधिनीके कारसे भारतवर्ष के यावतीय विद्यालयों में संस्कृत लिये कोई लिखकर भेजता, वह इनके देखने में आता शिक्षाके प्रचारका आदेश हुआ। लोगों को सहजमें और पोछे उक्त पत्रिकामें छपता था। विद्यासागर संस्कृत सीखनेके लिये इन्होंने सरल संस्कृत पाठ्य अपने बन्धके निकट अंगरेजी आलोचना करने पहुंचते पुस्तक सङ्कलन किये थे। और उन्हों बन्धुवरके अनुरोधसे तत्वबोधिनौके लेखक विद्यासागर केवल स्त्रियों और साधारण निर्धनोंकी इनका परिचय पाते। तत्त्वबोधिनी-पत्रिकाके तत्- शिक्षाके लिये ही यत्नवान् न हुये, किन्तु विधवाविवाह कालीन सम्पादक अक्षयकुमार दत्त स्वयं निकट आ | चलानको भी आगे बढ़े। इनके द्वारा विधवाविवाहके विद्यासागरसे प्रबन्धादि लिखनेका अनुरोध करत पार| विषयमें समस्त स्मृतिशास्त्रोंसे जो व्यवस्था जुड़ो, उससे जो ग्रन्थ लिखते, उन्हें संशोधन करा छपनेको भेजते | इनको शास्त्र-पारदर्शिता विलक्षण मालम पड़ी थी। थे। वस्तुतः इन्हींके साहाय्यसे अक्षयकुमारकी रचना- इसो समय अपने समाजवाले भनेक विद्य, प्रणाली उतनी प्राञ्जल हुई। विद्यासागर कभी कभी सम्भ्रान्त और मूर्ख प्रभृति सकल श्रेणियों के लोग तत्त्वबोधिनीमें प्रबन्धादि लिखते थे। इन्होंने सबसे विद्यासागरपर खड़गहस्त हुये। ये देशीय लोगों को आगे महाभारतका वङ्गला अनुवाद उक्त पत्रिकामें ग्लानि, कुत्मा पौर निन्दाका वाद पकातर सहते भी प्रकाशित किया। किन्तु विद्यासागर-विरचित महा- प्रतिवादियोंका मत काट खीय गन्तव्य पथमें आगे भारतका बङ्गला अनुवाद सम्पूर्ण हुआ न था। स्वर्गोय | बढ़े थे। तत्काल तारानाथ तर्कवाचस्पति, भरतचन्द्र कालीप्रसन्न सिंहने उसे देख इनके परामर्शानुसार शिरोमणि, गिरिशचन्द्र विद्यारत्न, रामगति न्यायरत्न पण्डितोंके साहाय्यसे उसे पूरा कराया। तत्त्वबोधिनी प्रभृति पण्डितोंने विद्यासागरको साहाय्य दिया। सभावाले सभ्योंके अनुरोधसे विद्यासागर तत्त्वाव इन्हींके यत्न और उद्योगसे सरकारने विधवाविवाह धायक बने थे। किन्तु कुछ दिन पीछे ही किसी चलानेको १८५६ ई०का ५ वां आईन छपा था। विशेष कारणसे इन्होंने तत्वबोधिनीका संस्रव विद्यासागरके यत्नसे कई विधवाविवाह भी शान्ति- त्याग किया। पूर्वक हो गये। इसी समय इन्होंने समाजके एक १८५३ ई०को विद्यासागरने निज जन्मभूमि वीर विशेष हितकर कार्यमें मन लगाया। इस देशमें बहु सिंह ग्राममें निर्धन बालकबालिकाओंके उपकारार्थ | विवाहरूप कुप्रथा बहुत दिनोंसे चल रही है। इसके अवैतनिक विद्यालय खोला था। दरिद्र बालकों प्रमाण देनेका प्रयोजन नहीं, कि उक्त तामसिक को समस्त दिन अवकाश न मिलनेसे रात्रिकालमें कार्यसे हमारे समाजका कितना अनिष्ट होता है। भी शिक्षा देनेके लिये विद्यालय खुलता। विद्या इस कुपथाको रोकनेके लिये विद्यासागरने प्राणपणसे लय खोलनेके बाद निज ग्राममें इन्होंने एक दातव्य- | यथासाध्य चेष्टा की। इसी उपलक्ष में बहुविवाह पर चिकित्सालयं भी स्थापन किया था। विचार करनेके बिये दो ग्रन्थ इन्होंने कृपवाये। इसी समय गवरनमेण्टने संस्कृत शिक्षा निकाल उन ग्रन्थों का नाम 'बहुविवाह उचितरूपसे रोकने या 'हैनेका प्रस्ताव किया। अनेक कृतविद्य साहबों और नरोकनेका विचार था।' इन्होंने प्रायः समस्त देशीय
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