पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/१०७

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ईश्वर १०६ श्रीकृष्णके मतमें (उपनिषद्प्रोक्त ) अज, अक्षय | असाधुके विनाश और धर्मके संस्थापनके लिये यग- और जगत्का मूल कारण ही ब्रह्म है। (गौता ८५२) | युगमें जन्म लेता है। खरको जो जिस भावसे पुकारता है, वह उसो वह जन्मरहित, अनश्वर-खभाव और सकलका ईश्वर | होते भी माया में पड़कर जन्मान्तरीण कर्मानुसार भावसे उसे पा जाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र प्रलयकाल-विलीन कर्मादि परवश समस्त भूतोंके और स्त्री सब कोई उस परमपुरुषका आश्रय ले बनाता है, किन्तु स्वयं उस सकल सृष्टिके आयत्त नहीं अत्यत्कृष्ट गति पा सकते हैं। (गीता अध्याय) होता। माया उसका अधिष्ठान ले इस चराचर विश्वको इसी प्रकार गोतामें सर्व वादिसम्मत ईश्वरतत्त्व उपजाती है। ईश्वरके अधिष्ठान निमित्त ही यह स्थापित हुआ है। गोतामें ईश्वरको अवतारको कथा जगत् पुन: पुन: उत्पन्न होता है। लिखी है और पुराणमें उसा महापुरुष की लीला वर्णित हुई है। सकल पुराणके मतमें ईश्वरने अपनी मायासे ...............विसृजामि पुनः पुनः । भूतग्राममिम कृत्स्नमवश प्रकृतेर्वशात् ॥८ स गुण बन ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर संज्ञा पायी है। न च मां तानि कर्माणि निवनति धनञ्जय । मत्स्यपुराणमें लिखा है, कि प्रकृतिके गुणत्रयका उदासीनवदासीनमसक्त तेषु कर्मसु ॥ नाम ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर पड़ा है। रजोगुण मयाध्यक्षण प्रकृतिः सूयते च चराचरम् । ब्रह्मा, सत्वगुण विष्णु और तमोगुण रुद्रका स्वरूप है। हेतुनानेन कौन्तेय जगदिपरिवर्तते ॥” १० ( गौता र अध्याय) "सत्वरजस्तमय व गुणवयमुदाहतम् । मैं खीय प्रकृतिका आश्रय पकड़ अविद्या-परवश साम्यावस्थितिरेतेषां प्रकृति: परिकीर्तिता ॥१४ प्राणिसमूहको वारंवार सृष्टि करता हूं, किन्तु उस केचित् प्रधानमित्याहुरव्यक्तमपरे जगुः । एतदेष प्रजासृष्टि करोति विकरोति च ॥१५ सृष्ट कर्मके आयत्त नहीं रहता। मैं सकल हो गुणेभ्यो क्षोभ्यमाणेभ्यस्त्रयो देवा विजजिरे । कमसे अनासक्त हो उदासीनकी भांति सर्वदा अवस्थान एका मूर्तिस्त्रयो भागा ब्रह्माविणमहेश्वराः ॥"१६ रखता हूं। प्रकृति मेरा अधिष्ठान पकड़ इस चराचर (मातस्य ३ अध्याय) जगत्को बनाती है। मेरे अधिष्ठानके हेतु ही जगत् | पुराणमें इन तीनो देवतायोंकी उपासना वर्णित है और नियत रूपसे बदलता (पुनः पुनः उत्पन्न होता ) | यही त्रयीमूर्ति सर्वशक्तिमान् ईखरभावसे पूजित है। रहता है। वह सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म है। (गीता पास)| सिवा इसके महामाया,लक्ष्मी प्रभृति देवियों और दूसरे वह स्वीय प्रकृतिका आश्रय ले समय-समय पर जन्म- | देवतायोंको उपासना भी देख पड़ती है। किन्तु सकल ग्रहण किया करता है। ही विशुद्ध सत्वोपाधिविशिष्ट परातीत परब्रह्म माने "जोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामौश्वरोऽपि सन् । गये हैं। सकल पुराणमें प्रधानत: ईश्वरको साकार प्रकृति खामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ उपासना निरूपित है। पुराणके मतसे इसी उपासना यदा यदा हि धर्मस्य स्वानिर्भवति भारत । हारा ईश्वर मिल सकता है। ऐसे स्थलपर अनेक अभ्युत्थानमधर्मस्य वदात्मान' सृजाम्यहम् ॥ ७ लोग आश्चर्यमें आकर पूछ बैठेंगे-जिस देश में ज्ञान- परिवाणाय साध नां विनाशाय च दुष्कृताम् । प्रधान उपनिषद् एवं दशन द्वारा ईश्वरको निराकार धर्मस'स्थापनार्थाव सम्भवामि युगे युगे।" ८ (गौता ४ अध्याय) उपासना ठहरायो, और ईश्वरको सर्वव्यापी सर्व यद्यपि मैं जन्मरहित, अव्ययात्मा एवं सर्वभूतका नियन्ता बता सर्वत्र घोषणा की गयी, उसी ज्ञानप्रधान ईखर हं तो भी नित्य प्रकृतिका आश्रय ले जन्मग्रहण देशमें जगद्व्यापी ईश्वरको रूपकल्पना कैसे प्रव- करता है। जिस जिस समय धर्मका विप्लव और | धारित हुयो ? जिसे निराकार कहा गया, उसके अधर्मका प्रादुर्भाव होता है, उसी उसी समय में आकारको कल्पना करनेका क्या प्रयोजन पड़ा? . आमाको सृष्टि किया करता हूं। मैं साधुके परित्राण, ...... पुराणकार व्यासदेवने देखा-जैसा समय है,