. ईश्वर १०४ " "प्रक्चतिवास्तवे च पुरुषस्याध्याससिद्धिः।" (२५) (पूर्वोक्त उपासना द्वारा चित्त निर्मल होनेपर) वस्तुतः प्रकृतिमें पुरुषका अध्यास सिद्ध होता है। उसके प्रत्यक्चैतन्यका (अर्थात् शरीरान्तर्गत आत्म- क्योंकि वेदने ही निर्देश किया है, कि पुरुषसे जगत् सम्बन्धीय) ज्ञान उपजता है। उस समय दूसरा कोई निकला है। (आत्मास नहीं) विघ्न नहीं पड़ता। (निर्विघ्न समाधि लग जाता है) ईश्वरवादीने ब्रह्म और हिरण्यगर्भ शब्दसे जैसे कणाद ऋषिने ईखर अथवा पुरुष नामसे किसीका ईखरको समझा है, वैसे ही कपिलने भी समुदय अस्तित्व नहीं माना है। (इसीसे अनेक उन्हें नास्तिक जीवका आदिवौज एक पुरुषको माना है। कहा करते हैं) किन्तु उनके भी गौणरूपसे ईखर "ईदृशे वरसिद्धिः सिडा।” (५७) माननका प्रमाण मिलता है। कणादके मतमें- इस प्रकार (प्रवतिलोन) जनेश्वर अवश्य मानना "वृक्षाभिसरणमित्यदृष्टकारितम्।” (पेशे षिक ५।२७ ) पड़ेगा। वृक्षसे रस सञ्चार होनेका कारण अदृष्ट ही है। "प्रधानसृष्टिः परार्थ स्वतोऽप्यभोतृत्वादुष्ट कुछ मवहनवत् ।” "अपसर्पणमुपसर्पणमशितपीतमयोगा: (उस ) प्रधानको जगत्सृष्टि दूसरेके लिये है। कार्यान्तरस योगाचे त्यद टकारितानि।" (५।२०१७) क्योंकि उष्ट्रके कुङ्कुम वहनको तरह वह स्वयं भोक्ता अपसर्पण, उपसर्पण और भुक्त एवं पीत वस्तुका नहीं होता। संयोग अदृष्टसे ही उत्पन्न होता है। "प्रकृतिपुरुषयोरण्यत् सर्वमनित्यम्।” (५॥१२) सिवा इसके अन्यान्य स्थल में अदृष्टको अनेक वस्तका प्रकृति और पुरुषको छोड़ कर सभी अनित्य है। कारण कहा है। इससे समझ पड़ता है कि कणाद- (अतएव प्रकृति और पुरुष ही जगत्का उपादान- कथित अदृष्ट हो ( अर्थात जिसका कार्यकारण प्रत्यक्ष कारण ठहरता हैं) दृष्टिगोचर नहीं होता) ईश्वर है। कणादमतमें पदृष्ट अवशेषमें महर्षि कपिलने धारणा, ध्यान, आसन, कारण-विशेष द्वारा परमाणु समुदायका संयोग होनेसे विहित कर्मानुष्ठान और वैराग्यको ही मोक्षका हार यह विश्वब्रह्माण्ड बना है। परमाण देखो। बतलाया हैं। सांख्यमूत्र ३।३०-३६ देखो। महर्षि गौतमके मतसे- योगसूत्र में पतञ्जलि मुनिने प्रकाशित किया है,- "ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफलादर्शनात्।" (न्यायस्व ११९) “के शकमविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।" (योगसू०१।२४) खर ही कारण ठहरता है, क्योंकि मनुष्य-कृत कर्म क्लेश, कर्म, विपाक एवं आशय जिसे छू नहीं सर्वदा सफल नहीं होता। न्याय देखी। सकता और जो कालत्रयसे पृथक तथा आमासे स्वतन्त्र रहता है, वही ईखर है। गौतमके मतसे परमेश्वरमें नित्य ज्ञान, इच्छा और "तव निरतिशयं सुर्वचत्ववीजम् ।” (१२५) . यत्वादि कतिपय गुण रहते हैं। वह जगत्का केवल ईश्वर निरतिशय ज्ञान रखनेसे सर्वज्ञ है। निमित्त कारण है, उपादान कारण नहीं। जैमिनि “सपूर्वषामपि गुरुः कालेनानवच्छे दात् ।” (१२२६) ऋषिके मतमें वैदिक कर्मानुष्ठान द्वारा पुरुषार्थ वह पूर्वतनों (आदि सृष्टिकर्तावों)का भी गुरु है। . मिल सकता है। उन्होंने भी ब्रह्मका अस्तित्व स्वीकार वह किसी काल द्वारा अवच्छिन्न नहीं होता। किया है, "तस्य वाचकः प्रणवः।” (१।२७). ... "ब्रह्मापीति चेत् ।” (पूर्वमीमांसा १२।१।३६) प्रणव उसका बोधक है। ___ महर्षि वादरायणने समग्र उपनिषदका सार "तज्वपस्तदव भावनम्।” (१८) ... निकाल वेदान्तसूत्रमें अच्छीतरह ईश्वरतत्त्वको उस प्रश्वका जप और उसके अर्थका ध्यान करना | मीमांसा लिखी है। उन्होंने कपिल, कणाद, गौतम ही उपासना है। प्रकृतिका मत काटकर एक अद्वितीय परब्रह्मका स्वरूप. - "ववः प्रत्यचेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावारा" (४२९). देखा दिया है। उनके मतसे-
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