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हिन्दी-राष्ट्र
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इतिहास में सचमुच बराबर ऐसा हुआ है। मुसलमानों के आक्रमण के समय में दिल्ली तथा कन्नौज इत्यादि के क्षत्रिय राजाओं का इन विदेशियों के साथ युद्ध करना तथा पराजित हो जाने पर विन्ध्य के जंगलों तथा राजस्थान की मरुभूमि की शरण लेना और उत्तर भारत के ब्राह्मण, वैश्य तथा शूद्र कहलाने वाली प्रजा का चुपचाप विदेशियों के शासन में रहते रहना—ये सब बातें अभी थोड़े ही दिन की हैं।

अभी सौ वर्ष पूर्व जब देश का राज्य मुसलमान शासकों के हाथ से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ में गया था, तब प्रजा की यह उदासीनता और भी बढ़ गयी थी; क्योंकि जन्म से राज्य का काम करने का अधिकार रखने वाले प्रजा के प्रतिनिधि स्वरूप क्षत्रिय उस समय उत्तर भारत में प्रायः रह ही नहीं गए थे। यदि इस सामाजिक जाति सम्बन्धी विभिन्नता का प्राबल्य न होता, तो विदेशियों का भारत को विजय करना ऐसा सरल न होता और फिर सैकड़ों वर्ष तक सुख पूर्वक राज्य करना तो असंभव ही था।

भारत में व्यक्तिगत तथा सामाजिक हानि-लाभ की विभिन्नता का क्या रूप है, यह हम दिखला चुके हैं। अब हमें प्रादेशिक विभिन्नता पर विशेष विचार करना है, क्योंकि राष्ट्रीयता का इस से बहुत निकट का सम्बन्ध है। आर्थिक हानि-लाभ के भिन्न होने के रूप में प्रादेशिक विभिन्नता स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। यदि कोई बंगाली, पञ्जाबी, या मद्रासी किसी ऊँचे पद पर हो, तो वह अपने प्रदेश के लोगों को लाने का बराबर प्रयत्न करता है।