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इतना अवश्य है कि वह आनंद रति आदि से परिच्छिन्न होकर प्रतीत होता है, समाधि की तरह अपरिच्छिन्न रूप में नहीं।

इसके अनंतर जो दो मत उत्पन्न हुए हैं, उनमें से एक में—

१०—इस आनंद को आत्मचैतन्य से प्रकाशित और भ्रांति से उत्पन्न रति आदि का माना गया है। और दूसरे में—

११—केवल भ्रमरूप।

गुण

भरत और भामह

अब इसके आगे प्रस्तुत पुस्तक में विवेचनीय विषय हैं गुण। गुणों के विषय में प्रधानतया दो मत हैं—एक प्राचीनों का और दूसरा नवीनों का। प्राचीनों ने श्लेष[], प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, ओज, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता और कांति ये दश गुण माने हैं। इनके आविष्कारक भरत अथवा उनके पूर्ववर्ती कोई आचार्य हैं। पर भामह[] ने अपने ग्रंथ में इनमें से केवल तीन ही गुणों के नाम लिखे हैं, और आगे जाकर काव्यप्रकाशकारादिकों ने प्राचीनों के सब गुणों का


  1. श्लेष. प्रसादः समता समाधिर्माधुर्यमोजः पदसौकुमार्यम्।
    अर्थस्य च व्यक्तिरुदारता च कान्तिश्च काव्यार्थगुणा दशैते॥—नाट्यशास्त्र

  2. 'माधुर्यमभिवान्छृन्त. प्रसादं च सुमेधसः। समासवन्ति भूयांसि न पदानि प्रयुञ्जते। केचिदाजोऽभिधित्सन्तः समस्यन्ति बहून्यपि।' (भामह का 'काव्यालङ्कार')