पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/९३

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इन प्रश्नों के प्रत्युत्तरों की बारी आई और पहले पहल पुरःस्फूर्त्तिक दृष्टि से यह समझा गया कि ये चित्तवृत्तियाँ काव्य में वर्णित नायक-नायिका आदि की हैं। इस प्रकार पहले प्रश्न का तो प्रत्युत्तर हो गया। अब रहा दूसरा प्रश्न। उसका प्रत्युत्तर सबसे पहले इस सूत्र के प्रथम व्याख्याकार आचार्य भट्ट-लोल्लट ने यों दिया कि सामाजिक लोग उन चित्तवृत्तियों को नष्ट पर आरोपित कर लेते हैं और उन आरोपित चित्तवृत्तियों के ज्ञान से सामाजिकों को आनंद प्राप्त होता है।

७—श्री शंकुक ने इस मत का खंडन किया और कहा—सामाजिक लोग उन चित्तवृत्तियों का अनुमान कर लेते हैं। पर,

८—भट्टनायक ने इन बातों को स्वीकार न किया; उन्होंने कहा—नहीं, तुम्हारा कहना ठीक नहीं। असली बात यह है कि किसी भी काव्य के सुनने अथवा उसका अभिनय देखने से तीन काम होते हैं—पहले उसका अर्थ समझ में आता है; तदनंतर उस अर्थ का चिंतन किया जाता है, जिसका हमारे ऊपर यह प्रभाव होता है कि हम उसमें सुनी और देखी हुई वस्तुओं के विषय में यह नहीं समझ पाते कि वे किसी दूसरे से संबंध रखती हैं अथवा हमारी ही हैं; और उसके बाद हमारे सत्त्वगुण की अधिकता से रजोगुण और तमोगुण दब जाते हैं और हम आत्मचैतन्य से प्रकाशित एवं साधारण रूप में उपस्थित रति आदि भावों का अनुभव करते हैं। अर्थात् जिन