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आलंबन अर्थात् प्रेमपात्र आदि में, जो नट आदि के रूप में हमारे सामने उपस्थित होते हैं, रहता है।
२—तदनंतर उन्होंने सोचा कि उनके हाव-भावों और चेष्टाओं में, जिन्हें नट आदि प्रकाशित करते हैं, वह रहता है।
३—फिर उन्होंने समझा कि उनकी मनोवृत्तियों में, जो नट आदि के अभिनय के द्वारा ज्ञात होती हैं, वह रहता है।
४—पीछे से विदित हुआ कि इन तीनों में से जो चमत्कारी होता है, उसमें वह रहता है।
५—बाद में पता लगा कि इकट्ठे तीनों में, अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारीभाव के समुदाय में, वह रहता है।
६—इसके अनंतर भरत मुनि, अथवा उनके पूर्ववर्ती किसी आचार्य, ने यह स्थिर कर दिया कि यह आनंद इन तीनों के अतिरिक्त, जिन्हें स्थायी भाव कहा जाता है, उन चित्तवृत्तियों में रहता है और उनका साथ होने पर ये (विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव) भी आनंद देने लगते हैं।
तत्पश्चात् इस मत की व्याख्याएँ होने लगीं। व्याख्याकारों ने इस बात को तो मान लिया कि यह आनंद रति आदि चित्तवृत्तियों में रहता है; पर अब यह खोज शुरू हुई और ये प्रश्न उपस्थित हुए कि वे चित्तवृत्तियाँ किसकी हैं, काव्य में वर्णित नायक-नायिका आदि की अथवा सामाजिकों की? और यदि नायक-नायिका आदि की हैं तो नट को अभिनय करते देखकर सामाजिकों को उनसे कैसे आनंद मिलता है? फिर