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के विद्वानों में बहुत ऊँचा स्थान है और जिन्हें इस सूत्र के चतुर्थ व्याख्या-कार भी कहा जा सकता है, इस मत को भी पसंद न किया। उन्होंने कहा—आपने जो 'भावना' और 'भोग' नामक दो क्रियाओं की कल्पना की है, उसमें कोई प्रमाण तो है नहीं, कोरी मनगढ़ंत है। फिर भला इसे कोई कैसे स्वीकार करेगा?
अतः यो मानना चाहिए कि "विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों से अभिव्यक्त रति आदि स्थायी भावों का नाम रस है।" प्रस्तुत पुस्तक में प्रथम मत के 'क' और 'ख' भागों में इसी सिद्धांत का, किचिन्मात्र मतभेद से, सविस्तर प्रतिपादन किया गया है, सो आप इनका विशेष विवरण वहाँ देख ले। आज दिन तक रस के विषय में यही सिद्धांत प्रामाणिक माना जाता है और मम्मट भट्ट प्रभृति साहित्य-शास्त्र के महाविद्वान् इसे परम-आदरपूर्वक स्वीकार करते हैं।
अब रहा प्रथम मत का 'ग' भाग। उसमें पंडितराज ने यह सिद्ध किया है कि पूर्वोक्त 'क' और 'ख' मतों में रति आदि के साथ आत्मानंद तो आपको भी लगाना ही पड़ता है, उसके लगाए बिना तो छुटकारा नहीं; और यह भी सिद्ध ही है कि रस आनंद से शून्य नहीं है; तब जो श्रुतियों में आनंदमय आत्मा को रसरूप माना गया है, उसके अनुसार, आनंदसहित रति आदि की अपेक्षा, रति आदि से उपहित आनंद को ही रसरूप मानना उचित है। और उनके हिसाब से यही वास्तविक मत है।