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पूर्वोक्त भरत-सूत्र की सबसे पहली व्याख्या[] आचार्य भट्ट-लोल्लट ने लिखी है, जिसे मीमांसा के अनुसार माना जाता


  1. वीराच्चाद्भुतनिष्पत्तिः स्याद् वीभत्साद्भयानकः।
    शृङ्गारवीरकरुणरौद्रवीरभयानकाः॥
    बीभत्साद्भुतशान्ताख्याः स्वभावाक्षतुरो (?) रसाः।
    लक्ष्मीरिव बिना त्यागान्न वाणी भाति नीरसा॥


    अर्थात् जिसे वेदान्तो में अविनाशी, नित्य, अजन्मा, व्यापक, अद्वितीय, ज्ञानरूप, स्वत प्रकाशमान अथवा तमोनिवर्त्तक और सर्वसमर्थ परब्रह्म कहा गया है उसमें स्वतःसिद्ध आनंद विद्यमान है। वह आनंद किसी समय प्रकट हो जाया करता है और उस आनंद की वह अभिव्यक्ति, चैतन्य, चमत्कार अथवा रस नाम से पुकारी जाती है। उसी (आनंद की अभिव्यक्ति) का जो पहला विकार है, उसे अहंकार माना जाता है। उस अहंकार से अभिमान अर्थात् ममता उत्पन्न होती है, जिसमें यह सारी त्रिलोकी समाप्त हो गई है। तात्पर्य यह कि त्रिलोकी में एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो किसी न किसी की ममता की पात्र न हो। उसी अभिमान—अथवा ममता—से रति अर्थात् प्रेम अथवा अनुराग उत्पन्न होता है। वही रति व्यभिचारी आदि भावों की समानता से—अर्थात् समान रूप में उपस्थित व्यभिचारी आदि भावों से—परिपुष्ट होकर शृंगार-रस कहलाती है। उसी के हास्यादिक अन्य भी अनेक भेद है। (वही रति सत्वादि गुणों के विस्तार से राग, तीक्ष्णता, गर्व और संकोच इन चार रूपों में परिणत होती है; उनमें से) राग से शृंगार की, तीक्ष्णता से रौद्र की, गर्व से वीर की और संकोच से बीभत्स की उत्पत्ति मानी जाती है। स्वभावतः ये चार ही रस हैं। पर, बाद में, शृंगार से हास्य, रौद्र से करुण, वीर से अद्भुत और बीभत्स से भयानक की उत्पत्ति हुई। (और रति—अथवा अनुराग के अभाव रूप निर्वेद से शांत रस की उत्पत्ति हुई; अर्थात् रति-भाव से पाठ रसों की और रति के अभाव से एक रस की उत्पत्ति हुई।) इस तरह रसों के शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त ये नौ नाम हुए। जिस तरह किसी के पास लक्ष्मी—अर्थात् संपत्ति—हो, पर वह किसी भी काम में उसका त्याग—अर्थात् व्यय अथवा दान—न करता हो, तो वह शोभित नहीं होती, लोगों पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, ठीक वही दशा बिना रस की वाणी की होती है। अर्थात् नीरस वाणी कृपण के धन के समान निरुपयोगी और प्रभावशून्य होती है, और उसका होना न होना समान है।
    १—यहाँ से चार मतों के क्रम आदि काव्यप्रकाश तथा काव्यप्रदीप से लिए गए है।