पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/७८

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विदित हुआ कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव तीनों ही पृथक् पृथक् अथवा सम्मिलित—किसी भी रूप में—रस नहीं हो सकते। क्योंकि जिस वस्तु का हम आस्वादन करते हैं, जिससे हमें यह आनंद प्राप्त होता है, वह ये नहीं, किंतु वही पूर्वोक्त चित्तवृत्ति है, जो भिन्न-भिन्न नाट्यों में भिन्न -भिन्न रूपों में स्थिरतया प्रतीत होती रहती है। अर्थात् यह निर्णीत हुआ कि प्रेम आदि स्थायी भावों का नाम रस है। साथ ही यह भी विदित हुआ कि विभाव उस चित्तवृत्ति को उत्पन्न करते हैं, अनुभाव उसके द्वारा उत्पन्न होते हैं और व्यभिचारी भाव उसके साथ रहकर उसे पुष्ट करते हैं। इसलिये यह सिद्ध हो गया कि इन सब में स्थायी भाव ही प्रधान हैं; क्योंकि ये सब उसके उपकरणभूत हैं; और इन तीनों के संयोग से वह रसरूप बनकर हमें आनंदित करता है। अर्थात् नाट्यादिक में हम इन तीनों से संयुक्त, परंतु इन सब से प्रधान, उसी चित्तवृत्ति का आस्वादन करते हैं।

इसी विमर्श को नाट्य-शास्त्र के परमाचार्य महामुनि भरत ने लिखा है। उन्होंने पूर्वोक्त सिद्धांत को अपने नाट्यशास्त्र में अच्छी तरह स्थिर कर दिया, और—

"विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।"


यह सूत्र बनाया। यह सूत्र आज दिन तक प्रमाण माना जाता है और अनंतरभावी आचार्यों ने इसी सूत्र पर अपने विचार प्रकट किए हैं। इस सूत्र का अर्थ यों है कि विभाव,