पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/७६

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५—अब आगे चलिए। आगे यह बात हुई कि रस का अन्वेषण करते करते जब लोगों की दृष्टि मनो-भावों की तरफ गई तो उनका भी विवेचन होने लगा। विवेचन करने पर विदित हुआ कि उन भावों में से अथवा भाव ऐसे हैं कि जो नाट्य भर में प्रतीत होते रहते हैं; जैसे शृंगार के अभिनय मे प्रेम, करुण के अभिनय में शोक इत्यादि। और शेष ऐसे विदित हुए कि जो कभी प्रतीत होते थे और कभी नहीं; जैसे हर्ष, स्मृति, लज्जा-आदि। जो भाव नाट्य भर में प्रतीत होते रहते थे, उन्हें लोग स्थायी कहने लगे; क्योंकि वे स्थिर थे। और, जो कभी कभी प्रतीत होते थे, उन्हें व्यभिचारी अथवा संचारी कहा जाने लगा; क्योंकि वे व्यभिचरित होते रहते थे अर्थात् कभी प्रेम के साथ रहते थे तो कभी शोक आदि के साथ। जब स्थायी भावो का ज्ञान हो गया तब उन्होंने पूर्वानुभूत रस को उन्हीं के अनुसार नौ भेदों में विभक्त कर दिया, जिनका सविस्तार वर्णन प्रस्तुत पुस्तक में है।

जब यह विमाग हो गया, तब लोगों को पूर्वोक्त चारों मतों की निस्सारता प्रतीत हुई। उनको ज्ञात हुआ कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव, इन तीनों में से किसी एक को (फिर वह चमत्कारी हो अथवा अचमत्कारी)