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को ही उसका अर्थ स्वीकार करना पड़ेगा, संस्कार अथवा अदृष्ट को नहीं।

इस संबंध में पंडितराज कितना अच्छा कह रहे हैं। वे कहते हैं कि काव्य बनाने के अनुकूल शब्दों और अर्थों की उपस्थिति (याद आ जाने) का नाम प्रतिभा है, जो आपकी वही 'नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि' हुई। और यह भी कहते हैं कि उसको वैसी बनाने का कारण कहीं अदृष्ट होता है और कही व्युत्पत्ति और अभ्यास, जो अनुभव-सिद्ध है। अब इस विषय का शेष विवरण आप अनुवाद और उसकी टिप्पणी में देख सकते हैं।

काव्यों के भेद

इसके आगे प्रस्तुत पुस्तक में काव्यों के भेदों का वर्णन है; पर उनके विषय में हमे विशेष नही लिखना है; क्योंकि, इस विषय में अधिक मतभेद नहीं है। जहाँ तक हमारा ज्ञान है—इस विषय का विशेषरूपेण विवेचन 'ध्वन्यालोक' के तात्पर्यानुसार काव्यप्रकाशकार ने ही किया है। उन्होंने काव्यों के तीन भेद माने हैं; ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र; जिन्हें उत्तम, मध्यम और अधम भी कहा जाता है।

पर साहित्यदर्पणकार ने इनमें से पहले दो भेदों को ही काव्य माना है; वे 'चित्रकाव्य' को काव्य मानना नहीं चाहते। इसका कारण यही है कि वे रस आदि के अतिरिक्त गुणों और अलंकारों को सौंदर्य का कारण नहीं मानते; जैसा कि हम