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"देवताराधनादिजन्यं विलक्षणादृष्टं 'शक्नोति काव्यनिर्माणायाऽनये'ति योगाच्छक्तिरित्युच्यते।" अर्थात् व्याकरण की रीति से शक्ति शब्द का अर्थ 'जिसके द्वारा काव्य बनाया जा सकता है' यह होता है, तदनुसार देवता के आराधन आदि से उत्पन्न अदृष्ट को 'शक्ति' कहा जाता है। पर दंडी और रुद्रट जिसे प्रतिभा और शक्ति कहते हैं, उसका और नागेश की व्याख्या का परस्पर कुछ भी मेल नहीं मिलता। देखिए, दंडी ने अपने पद्यों में प्रतिभा को दो विशेषण दिए हैं, जिनसे उनका अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है कि वे किसे प्रतिभा मानते हैं। उनका एक विशेषण है 'नैसर्गिकी' और दूसरा है, 'पूर्ववासनागुणानुवंधि'; जिनका अर्थ हम पहले कर आए हैं। अब सोचिए कि नागेश के कथनानुसार यदि 'संस्कारविशेष' का अर्थ अदृष्ट माने तो उसे 'स्वाभाविक' विशेषण देना व्यर्थ है; क्योंकि अदृष्ट तो पुरुष के प्रयत्न से उत्पन्न होता है, फिर वह स्वाभाविक कैसा? दूसरे, उनका 'पूर्ववासनागुणानुबंधि' विशेषण भी घटित नहीं हो सकता; क्योंकि अदृष्ट तो पूर्व कर्मों के फल का नाम है, सो वह पूर्वजन्म के संस्कार से उत्पन्न गुणों का अनुगामी नहीं, किंतु जनक हो सकता है। इस कारण, इनके हिसाब से तो 'प्रतिभा' का अर्थ एक प्रकार की बुद्धि ही हो सकता है, न किसी प्रकार का संस्कार और न अदृष्ट।

अब रुद्रट की तरफ चलिए। वे प्रतिभा को सहज और उत्पाद्य दो तरह की मानते हैं, और उत्पाद्य प्रतिभा को व्युत्पत्ति