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करना चाहता तो बात दूसरी थी। सो मैंने इस अनुवाद का कार्य आरम्भ कर ही डाला।
पर पूर्वोक्त आचार्यकुमार यहाँ स्थिर रूप से नहीं रह पाते। उन्हें भारतवर्ष के अधिकांश भाग में फिरते रहना होता है। और मैं तो रहा उनके साथ; इस कारण तथा अन्यान्य कारणों से भी मुझे खूब ही भ्रमण करना पड़ता है। सो इस (प्रथमानन) के अनुवाद के लिखते समय मैंने कराँची, हैदराबाद (सिंध), जोधपुर (कई बार), जयपुर (कई बार) अहमदावाद, बड़ौदा, ईडर, बीकानेर, नागोर, जूनागढ़ (कई बार), काशी, मथुरा और श्रीनाथद्वार आदि अनेक प्रसिद्ध नगरों के अतिरिक्त काठियावाड़ के शतावधि गावँड़ों में—प्रायः आज पहुँचे और कल चले, इस हिसाब से—भ्रमण किया है, और आज भी यही क्रम वर्त्तमान है।
गावँड़ों में प्रायः किसानों के घरों में रहना होता है। उन गोमयगंधी अंधतमसावृत तथा खटमलों और पिस्सुओं के नियत निवासों मेंं जिन कष्टों का अनुभव होता है, उन्हें अनुभविता के अतिरिक्त कौन समझ सकेगा? हाँ, कभी-कभी अच्छे घर भी प्राप्त हो जाते हैं; पर भाग्य से ही। फिर वहाँ पहुँचते ही घर जमाना, भोजन बनाना, पूर्वोक्त कुमारों को पढ़ाना और आवश्यकता हो तो व्याख्यानादि भी देना पड़ता है। इसके उपरांत यदि सद्भाग्य से कुछ समय प्राप्त हो गया और शरीर तथा मन स्वस्थ रहा तो इस अनुवाद के लिखने का अवसर