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काव्य हुआ। बाद में, वामन के समय से, 'सौंदर्यपूर्ण अर्थ और उसके सौंदर्यपूर्ण वर्णन' को काव्य कहा जाने लगा। वामन और उनके पूर्व के समय में शब्द और अर्थ दोनों के सौंदर्य का कारण गुणों और अलंकारों को ही माना जाता था।
उनके बाद आनंदवर्धनाचार्य के समय में सौंदर्य का पूर्णतया अन्वेषण हुआ, और तब सौंदर्य के मूल कारण 'रस' का प्राधान्य हो जाने के कारण, अलंकारों का आदर कम हो गया।
काव्यप्रकाशकार ने अलंकारों को गौण कर दिया और गुणों को केवल रस का धर्म मानकर उनको अभिव्यक्त करनेवाली रचना का अधिक सम्मान किया। उनके हिसाब से रस और रचना सौंदर्य का प्रधान कारण थे और अलंकार अप्रधान। तदनुसार वे भी 'सौंदर्यपूर्ण अर्थ और उसके सौंदर्यपूर्ण वर्णन' को काव्य मानने लगे।
वाग्भट और पीयूषवर्ष के लक्षण उतने क्षोदक्षम नहीं हैं; अतः उन पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
साहित्यदर्पणकार सौंदर्यपूर्ण अर्थ को काव्य नहीं मानते; किंतु उसके वर्णनमात्र को काव्य मानते हैं; और सौंदर्य का कारण एक मात्र रस को समझते हैं। ये महाशय वर्णन के सौंदर्य को आवश्यक मानते हैं; पर अनिवार्य नहीं। अतएव इनके हिसाब से वर्णन की निर्दोषता और सालंकारता सर्वथा अपेक्षित नहीं। यही बात पंडितराज के विषय में भी समझ लीजिए। परंतु पंडितराज के तर्क इस विषय में इनकी अपेक्षा ठोस हैं।