काम कर जानेवाला अतएव चमत्कारी होता है कि जिसके कारण वाक्य को ध्वनि (उत्तमोत्तम काव्य) कहा जा सके। जैसे-"मंदमाक्षिपति" अथवा "हरुए रही उठाय" इसमे "मंदम्" अथवा "हरुए" शब्द।
वर्ण, रचना ध्वनि
रचना और अक्षर, यद्यपि पदों और वाक्यों के अंतर्गत होकर ही व्यंजक होते हैं, क्योंकि पृथक रचना और अक्षरमात्र तो व्यंजक पाए नही जाते; अतः यह कहा जा सकता है कि वैसी रचना और वर्ण से युक्त पद और वाक्य व्यंजक होते है। सो उनकी व्यंजकता में जो पदार्थ विशेष रूप से रहनेवाले हैं, उन्हीं में इनका भी प्रवेश हो जाता है, अतः इन्हें स्वतंत्र रूप से व्यंजक मानने की आवश्यकता नहीं रहती, तथापि पदों और वाक्यों से युक्त रचना और वर्ण व्यंजक है अथवा रचना और वर्ण से युक्त पद और वाक्य, इन दोनों में से एक बात को प्रमाणित करने के लिये कोई साधन नहीं है, इस कारण प्रत्येक की व्यंजकता सिद्ध हो जाती है। जैसे कि घड़े का कारण चाकसहित डंडा माना जाय अथवा डंडासहित चाक; इनमें से जब एक बात को सिद्ध करने के लिये कोई प्रमाण नहीं है, तब-चाक और उसे फिराने का डंडा-दोनों पृथक् पृथक् कारण मान लिए जाते हैं। सो वर्ण और रचना को भी पृथक् व्यंजक मानना अनुचित नहीं। यह तो है प्राचीन विद्वानों का मत।