मात्र से सिद्ध) इन तीन तीन उपाधियों से युक्त होते हैं; अतः जिस तरह व्यंग्य वस्तु और अलंकार ६-६ रूपों में अभिव्यक्त होते हैं, उसी प्रकार रसादिक भी ६ रूपों में अभिव्यक्त होंगे, और इस तरह पूर्वोक्त भेद, बारह की जगह अठारह होने चाहिएँ।
इसका प्रत्युत्तर यह है कि अभिनवगुप्तादिकों के प्रमिप्राय का इस तरह वर्णन कर दो कि स्पष्ट प्रतीत होनेवाले विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के परिज्ञान होने के अनंतर, क्रम का ज्ञान न होकर, जिस रति आदि स्थायी भाव की अभिव्यक्ति होती है, वही रसरूप बनता है, क्रम के लक्षित होने पर नहीं। क्योंकि रखरूप होने का अर्थ ही यह है कि स्थायी भाव का, झट से उत्पन्न होनेवाले अलौकिक चमत्कार का विषय बन जाना, यह नहीं कि धीरे धीरे समझने के बाद उसमे अलौकिक चमत्कार का उत्पन्न हो जाना। अतः जिस रति-आदि की प्रतीति का क्रम लक्षित हो जाता है, उसे वस्तुमात्र-अर्थात् केवल रति आदि ही-कहना चाहिए, रसादिक नहीं। सो उनकी उक्तियों का विरोध नहीं रहता। तात्पर्य यह कि इस तरह रस आदि के छः भेद भी वस्तु के ही अंतर्गत हो जाते हैं, सो अठारह भेद लिखने की आवश्यकता नहीं रहती। पर, इस बात को सिद्ध करने के लिये कि 'अलक्ष्यक्रम होने पर ही रस मानना चाहिए और लक्ष्यक्रम होने पर नहीं'; युक्ति विचारने की आवश्यकता है। अर्थात इस कथन में कोई युक्ति