इस पद्य में बालिकाओं के स्वभाव के अनुसार भी मुख की नम्रता सहित खेलने के कमलों के पत्रों का गिनना सिद्ध हो सकता है; अतः, थोड़े विलंब से, जब नारदजी के किए हुए विवाह के प्रसंग का ज्ञान होता है, तब, पीछे से, लज्जा का चमत्कार होता है, सो यह (लज्जा की) ध्वनि (अभिव्यक्ति) लक्ष्यक्रम है।" और अभिनवगुप्ताचार्य (ध्वन्यालोक की टीकालोचन के कर्ता) का भी यह कथन है कि "रस भाव आदि पदार्थ ध्वनित ही होते हैं, कभी वाच्य नहीं होते, तथापि सभी अलक्ष्यक्रम का विषय नहीं हैं-अर्थात् वे संलक्ष्यक्रम भी हैं।"
पर, यहाँ यह कहा जा सकता है कि यदि ये रसादिक संलक्ष्यक्रम भी हों, तो अनुरणनात्मक ध्वनियों के भेदों के प्रसंग मे "अर्थशक्तिमूलक ध्वनि के बारह भेद होते हैं"। यह अभिनवगुप्त की उक्ति और "सो यह बारह प्रकार का है। यह मम्मट भट्ट की उक्ति प्रसंगत हो जायगी। क्योंकि व्यंजक अर्थ दो प्रकार का होता है-एक वस्तुरूप, दूसरा अलंकाररूप। और उनमे से प्रत्येक स्वतःसंभवी (अर्थात् संसार में उपलब्ध हो सकनेवाला), कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध (अर्थात् कविकल्पित कथन मात्र से सिद्ध) और कविनिबद्धवत्कृप्रौढोक्तिसिद्ध (अर्थात् कवि ने जिसका अपने ग्रंथ मे वर्णन किया है, उस वक्ता की प्रौढ़ोक्ति
नारदजी ने पिताजी के पास इस तरह बात की, तो पार्वती नीचा मुँह करके जो खेलने के कमल थे, उनके पत्रों को गिनने लगी।