एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि-स्त्रियों के धैर्य को बलात् निकाल फेंकती हुई भगवान् कृष्णचंद्र की शोभा मृगनयनी' ने ज्योंही पान की, त्योंही बहुत समय के अपराधों के स्मरण के कारण अत्यंत प्रबल हुआ भी रोष एक क्षण भर का पाहुना हो गया-उसका थोड़ा भी साहस न हुआ कि कुछ तो ठहरे।
इत्यादिक पद्य भी भावशांति की ध्वनियाँ होने लगेंगे। क्योंकि यहाँ यद्यपि रोष भाव वाच्य है, तथापि आपके हिसाब से जो प्रधान है, वह शांति "क्षण भर का पाहुना हुआ" इस अर्थ से व्यंग्य है। अब यदि आप कहें कि भाव और शांति दोनों का व्यंग्य होना अपेक्षित है, तो यह भी ठीक नहीं; क्योकिं पूर्वोक्त दोनों पक्षों में शांति रूप से शांति (फिर वह रोष की हो चाहे अरुण कांति की) और इसी तरह उदय रूप से उदय (फिर वह अमर्ष का हो चाहे अरुण कांति का) वाच्य हो गए हैं, अतः वे पद्य उन दोनों ध्वनियों के उदाहरण न हो सकेंगे। और इस बात को स्वीकार कर लेना-कह देना कि हम तो इन्हें भावशांति और भावोदय की ध्वनियों मानते ही नहीं, सहृदयों के लिये अनुचित है। अतः यह सिद्ध होता है कि भावशांति आदि में भी प्रधानतया भाव ही चमत्कारी होते हैं, शांति आदि तो गौण होते हैं; सो उनका वाच्य होना दोष नहीं।
हाँ, भावों की ध्वनियों से भावशांति आदि की ध्वनियों के चमत्कार की विलक्षणता मे मुख्य कारण यह है कि भाव