रोष की शांति व्यंग्य। यदि हम कहें कि-अरुणता के द्वारा व्यंग्य जो रोष है, उसी का वाच्य शांति आदि के साथ अन्वय है अर्थात हम व्यंग्य का ही वाच्य के साथ अन्वय मान लेते हैं तो आप कहेंगे, यह उचित नहीं। क्योंकि यह सिद्ध है कि पहले वाच्य की प्रतीति हावी है, फिर व्यंग्य की; तब यह मानना पड़ेगा कि जिस समय वाच्यों का अन्वय होगा, उस समय व्यंग्य-उपस्थित ही नहीं हो सकता; फिर बताइए वाच्यों के साथ व्यंग्यों का अन्वय कैसा? दूसरे, यदि ऐसा ही मानों तो प्रथम-पद्य (उषसि...) मे 'सुनयनी के नयन-कमलों में इस वाक्यखंड का अन्वय नहीं हो सकता; क्योंकि अमर्ष तो चित्तवृत्तिरूप है, वह आँखो में आवेगा कहाँ से अतः उन वाच्य शांति आदि का अरुणकांति आदि के साथ ही अन्वय मानना ठीक है; सो इन पद्यों में भावशांति आदि वाच्य नहीं हो सकती। पर ऐसा न कहिए। क्योंकि ऐसा मानने पर भी-
निर्वासयन्तीं धृतिमङ्गानानां शोभां हरेरणदृशो धयन्त्याः।
चिरापराधस्मृतिमांसलोपि रोषः क्षणप्राधुणिको बभूव॥
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स्मृति ते अतिबल भई सुचिर अपराधनि गन की।
कीन्हीं जाने परम विवशता निज तन-मन की॥
सो रिस मिस सो कीन्ह भई पाहुनि इक छन की।
जुवतिन धीरज-हरनि निरखि शोभा हरि-तन की॥
र॰-१९