पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३९४

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से नेत्रवाली, अधिदेवता के समान, मेरे हृदय से नहीं हट रही है-आज भी ज्यों की त्यों हृदय में बसी है। यह गुरुकुल में विद्याभ्यास करते समय, गुरुजी की पुत्री के लावण्य से मोहित हुए पुरुष की अथवा जिसका गमन अत्यंत निषिद्ध है, उस स्त्री को स्मरण करते हुए अन्य किसी की-जब वह विदेश में रहता था, तब की-उक्ति है।

यहाँ माला, चंदन आदि इंद्रियों के भोग्य पदार्थों में और बहुत समय तक सेवन की हुई विद्या मे, अपने को छोड़ देने के कारण कृतघ्नता, और हरिणनयनी ने नहीं छोड़ा इस कारण उसकी अलौकिकता, व्यतिरेक (एक अलंकार) रूप से, अभिव्यक्त होती है। पर वे दोनों स्मृति को ही पुष्ट करती हैं, सो 'स्मृति-भाव' ही प्रधान है। इसी प्रकार न छोड़ने मे भी जो सार्वदिकता (सब समय रहना) है, उसे अभिव्यक्त करनेवाली अधिदेवता*[१] की उपमा भी उसी को पुष्ट करती है। यह स्मृति अनुचित (गुरुकन्या अथवा वैसी ही अन्य) के विषय मे होने के कारण और अनुभयनिष्ठ होने–अर्थात् केवल नायक से संबंध रखने-के कारण 'भावाभास' है। पर, यदि यह माना जाय कि यह उस (हरिणनयनी) के वर की ही उक्ति है, तो यह पद्य 'भावध्वनि' ही है, यह समझना चाहिए।


  1. शास्त्रीय सिद्धांत है कि प्रत्येक वस्तु मे एक अधिदेवता रहता है, और वह उसे कभी नहीं छोड़ता।