होता है, वह हेतु नही होता।" दूसरे विद्वानों का कथन है-, "अनुचित होने के कारण स्वरूपनाश नही हो सकता अर्थात् वह रस ही है, किंतु दोषयुक्त होने से उन्हें आभास कहा जाता है; जैसे कोई अश्व (घोड़ा) दोषयुक्त हो, तो लोग उसे अश्वाभास कहते हैं।"
उदाहरण लीजिए-
शतेनोपायानां कथमपि गतः सौधशिखरं
सुधाफेनस्वच्छे रहसि शयितां पुष्पशयने।
विबोध्य क्षामाङ्गी चकितनयनां स्मेरवदनां
सनिःश्वासं श्लिष्यत्यहह! सुकृती राजरमणीम्॥
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करि सैकरनि उपाय शिखर पै पहुँच्यो महलनि।
सोई अमृतफेन-सुच्छ सेजा रचि कुसुमनि॥
चकितनयनि स्मितमुखी विरह-कृशतनु नृप-रमनिहिँ।
भेटत, धन्य, जगाइ उसासनजुत, श्रम-शमनिहिँ॥
कवि कहता है-सैकड़ों उपाय करके, किसी प्रकार, महलों की चोटी पर पहुँचा और अमृत के झागो के समान निर्मल पुष्पो की सेज पर सोई हुई कृशांगी को जगाया। उसने जगते ही उसे चकित नेत्रों से देखा और उसका मुखकमल खिल उठा। अहह! इस अवस्था में स्थित राजांगना को पुण्यवान पुरुष, साँस भरे हुए प्रालिंगन कर रहा है।