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३०-असूया

दूसरे का उत्कर्ष देखने आदि से उत्पन्न होनेवाली और दूसरे की निंदा आदि के कारणजो एक प्रकार की चित्तवृत्ति होती है, उसे 'असूया' कहते हैं। इसी को 'असहन' अथवा 'असहिष्णुता' आदि शब्दों से भी व्यवहार किया जाता है। जैसे-

कुत्र शैवं धनुरिदं क चाऽयं प्राकृतः शिशुः।
भंगस्तु सर्वसंहा कालेनैव विनिर्मितः॥
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कहाँ शम्भु को धनुष यह कहँ यह प्राकृत बाल।
याको नंजन तो कियो सरव-सँहारी काल॥

कहाँ यह शिव का धनुष और कहाँ यह साधारण बालक, इसका भंग तो सब वस्तुओं के संहार करनेवाले काल ने ही कर दिया। इसका भावार्थ यह है कि इस धनुष का, इतने समय तक पड़े रहने के कारण, अपने आप ही चूरा हो गया है, अन्यथा यह काम इस साधारण क्षत्रिय बालक-रामचंद्रके वश का नहीं है। यह, शिव-धनुष को तोड़नेवाले भगवान् रामचंद्र के पराक्रम को न सहनेवाले, उस सभा में बैठे हुए, राजाओं का कथन है।

यहाँ श्रीमान दशरथनंदन के वल का सबसे उत्कृष्ट दिखाई देना विभाव है और 'साधारण बालक' इस पद से प्रतीत होनेवाली निंदा अनुभाव है।