पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/३७३

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पतिदेव दूर से आए थे, उन्होंने सब रात भर अनेक कथाएँ समझाईं। सो हे सखी! मैं अधिक नहीं बोल सकती, तू बात न कर; मालूम होता है तेरी जीभ तो लोह की है, तू क्या थकती थोड़े ही है। यह, पति के आने के दूसरे दिन, बार बार रात का वृत्तांत पूछती हुई सखी के प्रति रात मे जगने से आलस्ययुक्त, किसी नायिका की उक्ति है।

यहाँ रात मे जगना विभाव है और अधिक बोलने का अभाव अनुभाव। जड़ता का नियम है कि वह मोह से प्रथम अथवा पीछे हुआ करती है; पर इसमें यह बात नही, सो आलस्य मे यह एक और भी विशेषता है।

यहाँ एक बात और समझ लेने की है। वह यों है-यदि यह माना जाय कि यहाँ जो कथा-शब्द आया है, वह असली बात छिपाने के लिये लाया गया है; अतएव अविवक्षितवाच्य है। सो 'कथा' शब्द का असली अर्थ है सुरत; और उसका व्यंग्य है नायिका का अत्यंत श्रमयुक्त होना। तो, जो श्रम-भाव अभिव्यक्त होता है, वह भले ही आलस्य का परिपोषक रहै; क्योंकि जो आलस्य श्रम से उत्पन्न हुआ है, उसमे श्रम का पोषक होना अनिवार्य है। पर, इसका अर्थ यह नहीं है कि जहाँ जहाँ आलस्य होता है, वहाँ उसका विभाव श्रम ही होता है। अतएव जहाँ अत्यंत तृप्त होने आदि से आलस्य उत्पन्न होता है, वहाँ आलस्य का विषय श्रम नहीं होता, किंतु अति-तृप्ति आदि होते हैं।