आँख आदि से रूप आदि का जैसा चाहिए वैसा ज्ञान न होना अनुभाव है। मोह में नेत्रादिकों से देखना आदि कार्य होते ही नहीं; परंतु इस भाव में यह बात नहीं। इस भाव में वस्तुओं के दर्शन आदि तो होते हैं; पर, प्रायः, उनका विशेष रूप से परिचय नही होता अर्थात् न जानना मोह का काम है और जैसा चाहिए वैसा न जानना जड़ता का। यही उससे इसमें विशेषता है। इसी कारण उदाहरण-पद्य में 'शिथिल कर दिया है' लिखा है, 'छोड़ दिया है। नहीं।
२६-आलस्य
अत्यन्त तृप्त हो जाने तथा गर्भ, पेग और परिश्रम आदि के कारण जो चित्त का कार्य से विमुख होना है, उसे 'आलस्य' कहते हैं। इसमें न प्रशक्ति होती है और न कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के विवेक का प्रभाव; अतः कार्य न करने रूपी अनुभाव के समान होने पर भी ग्लानि और जड़ता से इसका भेद है। उदाहरण लीजिए-
निखिलां रजनीं प्रियेण दूरा-
दुपयातेन विवाधिता कथाभिः।
अधिकं न हि पारयामि वक्तुम्,
सखि! मा जल्प, तवाऽयसी रसज्ञा।
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पिय पाए अति दूर ते करी बात सब रात।
तुव रसना सखि! लोह की हौं ना बोलि सकात॥
र॰-१७